Posted on 12 Dec 2019 -by Watchdog
राजेंद्र शर्मा
लोकसभा के नागरिकता संशोधन विधेयक पर मोहर लगाने पर प्रधानमंत्री के ‘खुशी’ जताने पर बरबस, पाकिस्तानी कवियित्री फहमिदा रियाज की बहु-उद्धृत नज्म ‘‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’’ याद आ रही है। आज इस नज्म का पहला छंद याद आना तो खैर लाजिमी है ही: ‘‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/ अब तक कहां छुपे थे भाई?/ वह मूरखता, वह घामड़पन/ जिसमें हमने सदी गंवाई/ आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे/ अरे बधाई, बहुत बधाई।’’
फिर भी, एक दशक से पहले लिखी गयी इस नज्म की यह चेतावनी आज और भी सटीक लगती है: ‘‘हम जिन पर रोया करते थे/ तुमने भी वह बात अब की है’’ और उसकी यह भविष्यवाणी हाडक़ंपाऊ तरीके से सच होती नजर आती है:
‘‘मश्क करो तुम आ जाएगा/ उल्टे पांवों चलते जाना/ दूजा ध्यान न मन में आए/ बस पीछे ही नजर जमाना/ एक जाप सा करते जाओ/ बारम्बार यही दोहराओ/ कितना वीर महान था भारत!/ कैसा आलीशान था भारत!/ फिर तुम लोग पहुंच जाओगे/ बस परलोक पहुंच जाओगे!/ हम तो हैं पहले से वहां पर/ तुम भी समय निकालते रहना/ अब जिस नरक में जाओ, वहां से/ चि_ट्ठी-विट्ठी डालते रहना।’’
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारतीय संविधान के निर्माता, डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण दिवस के पालन के फौरन बाद, मोदी राज ने उनके बनाए संविधान की आत्मा के भी तर्पण का संसदीय कर्मकांड शुरू कर दिया है।
बहुमत की तानाशाही के बल पर, लोकसभा से नागरिकता की परिभाषा में ही मौलिक परिवर्तन पर मोहर लगवाने के बाद, मोदी-शाह जोड़ी को राज्यसभा में बहुमत मैनेज करने से रोकने वाला कोई नहीं था और अंतत: उसकी कोशिशें कामयाब हो भी गयीं।
अब तो सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही इस निश्चित नर्क यात्रा से भारत को बचा सकता है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के भी हाल के रिकार्ड का देखते हुए और खासतौर पर कश्मीर से संबंधित याचिकाओं के साथ उसके सलूक और बाबरी मस्जिद मामले में उसके फैसले को देखते हुए, उससे भी बचाने की बस उम्मीद ही की जा सकती है।
अचरज की बात नहीं है कि धारा-370 को खत्म करने की संविधान पर अपनी ‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ की ही तरह, मोदी-शाह सरकार ने संविधान की आत्मा पर ही इस ‘‘सर्जिकल स्ट्राइक’’ के लिए भी, खुल्लमखुल्ला कानूनी छल का सहारा लिया है। इतना ही नहीं, इस बार भी उसी तरह से यह सरकार जो वह कर रही है और करना चाहती है, उसे उससे ठीक उल्टा ही बताने की प्रचार तिकड़म का भी सहारा लिया गया है।
यह दूसरी बात है कि यह प्रचार कुछ इस तरह संयोजित किया गया है कि पर्दा भी पड़ा रहे और उसके पीछे की सचाई भी झांकती रहे। इसकी जरूरत सबसे बढक़र इसलिए है कि उनके लिए, गांधी-आंबेडकर के देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान के तंबू में बहुसंख्यकवाद का ऊंट घुसाना जितना जरूरी है, उससे भी ज्यादा जरूरी अपने बहुसंख्यकवादी वोट बैंक को यह दिखाना है कि बहुसंख्यकवाद के ऊंट को इस तंबू में बाकायदा बैठाया जा चुका है।
दूसरे शब्दों में उन्हें अपने बहुसंख्यकवादी वोट बैंक को यह दिखाना है कि वे मुसलमानों को पराया या कमतर नागरिक बना रहे हैं और इस तरह, इस देश में बहुसंख्यक-हिदुओं को विशेषाधिकार दिला रहे हैं!
जो सत्ताधारी पार्टी झारखंड के चुनाव में खुद को अयोध्या में मस्जिद वाली जगह पर ही राम मंदिर बनवाने वाली पार्टी के रूप में पेश करने के जरिए, बेशर्मी से सुप्रीम कोर्ट के ताजातरीन फैसले को भुनाने की भरपूर और प्रधानमंत्री के स्तर तक से कोशिश कर रही हो, उससे नागरिकता कानून में संशोधन के पीछे दूसरी किसी मंशा की उम्मीद करना, जान-बूझकर सचाई से मुंह मोडऩा ही होगा।
वास्तव में इस संबंध में किसी शक की गुंजाइश ही न छोड़ते हुए, गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक पर सात घंटे लंबी बहस के अपने जवाब में, अपने सांसदों से बंगाली हिंदुओं को खासतौर पर यह समझाने की अपील की थी कि नागरिकता कानून मे संशोधन उनके ही फायदे के लिए है।
असम में एनआरसी के हथियार से मुसलमानों से ज्यादा बंगाली व अन्य हिंदुओं पर चोट पडऩे के बावजूद, अमित शाह को देश भर पर एनआरसी थोपनी है, ताकि विशेष रूप से मुसलमानों की नागरिकता को संदेह के दायरे में धकेला जा सके। लेकिन, इसकी चोट सिर्फ मुसलमानों पर ही पड़े यह पक्का करने के लिए, प्रकटत: एनआरसी लागू करना शुरू करने से पहले, नागरिकता का कानून में संशोधन किया जा रहा है, ताकि गैर-मुसलमानों को एनआरसी द्वारा छंटनी से सुरक्षित किया जा सके।
यह एक स्तर पर पर बंगाल व असम के अगले चुनाव में हिंदू वोट को अपने पक्ष में कंसोलिडेट करने के लिए भी है।
जाहिर है कि नागरिकता कानून में इस संशोधन का मकसद बंगलादेश, पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान से, पिछले अनेक वर्षों में अवैध रूप से भारत में आए लोगों में से, मुसलमानों को बाहर रखते हुए, हिंदुओं के लिए ही नागरिकता हासिल करना आसान बनाना है और इस श्रेणी में सिख, बौद्घ, जैन के साथ पारसियों तथा ईसाइयों का नाम, सिर्फ शोभा के लिए जोड़ दिया गया है।
यह खुल्लमखुल्ला कानून के स्तर पर सांप्रदायिक विभाजन का मामला है, जिसकी इजाजत आजादी की लंबी लड़ाई की पृष्ठभूमि में 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया भारत का संविधान नहीं देता है, जो धारा-14 के जरिए नागरिक/गैरनागरिक के भी विभाजन से ऊपर, सब के साथ बराबरी के सलूक को आधार बनाता है। नागरिकता की परिभाषा में यह संशोधन, भारतीय संविधान के इसी मूलाधार पर कुठाराघात करता है।
संबंधित विधेयक पेश करते हुए, इसमें कुछ भी संविधान के खिलाफ या अल्पसंख्यकों के खिलाफ न होने के बार-बार दावे करने के बावजूद, अमित शाह ने यह कहकर कि अगर धर्म के आधार पर 1947 में देश का विभाजन नहीं हुआ होता, तो इस संशोधन की जरूरत नहीं पड़ती, एक प्रकार से यह मान लिया कि यह सांप्रदायिक आधार पर देश विभाजन के अधूरेपन को पूरा करने की ही कोशिश का हिस्सा है।
अचरज की बात नहीं है कि ऐसा करने के लिए वे इस सचाई को दबा ही देना चाहते हैं कि सांप्रदायिक आधार पर पाकिस्तान भले अलग हुआ था, भारतीय गणराज्य का गठन धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही हुआ था। मुसलमानों के खासे बड़े हिस्से का भारत में ही बने रहना और उससे भी बढ़कर मुस्लिम बहुल कश्मीर का भारत के साथ आना, इसी का सबूत था। बेशक, शाह के देश के विभाजन के लिए राष्ट्रीय आंदोलन के कांग्रेसी नेतृत्व को जिम्मेदार ठहराने का, बहस के दौरान यह याद दिलाकर एकदम उपयुक्त जवाब दिया गया कि भारत में द्विराष्ट्र के सिद्धांत के मूल प्रस्तोता, संघ-भाजपा के प्रात:स्मरणीय वीर सावरकर ही थे। उन्होंने जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्र की मांग उठाने से बरसों पहले, 1935 में हिंदू महासभा के अखिल भारतीय सम्मेलन में अपने संबोधन में ही यह विचार पेश कर दिया था कि भारत में दो अलग-अलग राष्ट्र हैं–हिंदू और मुसलमान।
बाद में आरएसएस के गुरुजी कहलाने वाले गोलवालकर ने ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ में इस विचार को उसकी हिटलर-अनुगामी परिणति तक पहुंचाया था।
कहने की जरूरत नहीं है कि गोलवालकर का भारत में मुसलमानों को अराष्ट्रीय के रूप में अधिकारहीन बनाकर रखने का नुस्खा, विभाजन की मांग का ही एक रूप था। जाहिर है कि जिन्ना को भारत के मुसलमानों के एक बड़े हिस्से को अलग मुस्लिम देश के पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब करने में, हिंदू महासभा-आरएसएस आदि की ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ की ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रोत्साहित पुकारों से बढ़ रही इसकी आशंकाओं का भी था कि अंग्रेजों के जाने के बाद, हिंदू-बहुल भारत में मुसलमानों को बराबरी की हैसियत नहीं मिलेगी। कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा की अगर कोई विफलता देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार थी, तो यही कि अपनी सारी कोशिशों के बावजूद यह मुख्यधारा, मुसलमानों के बड़े हिस्से को इसका यकीन दिलाने में सफल नहीं हुई थी कि स्वतंत्र भारत एक सचमुच धर्मनिरपेक्ष भारत होगा, जहां उनकी हैसियत बराबरी के नागरिकों की होगी।
देश के दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद, पाकिस्तान में तो जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन भारत में हिंदू राष्ट्र बनवाने की हिंदू महासभा-आरएसएस की मुहिम को राष्ट्रीय आंदोलन की समावेशी राष्ट्रवाद की उस परंपरा ने हरा दिया, जिसके सबसे अडिग और सबसे असरदार जनरल गांधी थे।
भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की इसी मुहिम की पराजय की हिंसक खिसियाहट ने गांधी की हत्या के एक के बाद, कई षडयंत्रों व हमलों को जन्म दिया। 30 जनवरी 1948 को ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ के पैरोकारों ने अपने हिसाब से अपने रास्ते के इस सबसे बड़े कांटे को भी निकाल दिया। लेकिन, गांधी की शहादत कम से कम उस समय तो, हिंदू राष्ट्र गढ़ने के उनके अभियान के लिए, जिंदा गांधी से भी भारी पड़ी। और सावरकर के गांधी की हत्या के षडयंत्र का आरोपी बनाए जाने और गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा इसी हत्या की पृष्ठभूमि में आरएसएस पर पाबंदी लगाए जाने के बाद, कम से कम प्रकटत: इस मुहिम को राजनीतिक-सामाजिक हाशिए पर धकेल दिया गया।
बहरहाल, आजादी के बाद गुजरे सत्तर सालों में, उपनिवेशवादी शासन ने मुक्ति की साझा और समावेशी लड़ाई के बराबरी के और इसके हिस्से के तौर पर धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के कमजोर पड़ने के साथ, भारत में बुनियादी नाबराबरी तथा उसके हिस्से के तौर पर एक गैर-धर्मनिरपेक्ष राज कायम करने की मुहिम को नयी ताकत मिलती रही है। और आज, केंद्र में सत्ता पर अपने नियंत्रण और संसद के अपने शिकंजे में होने के चलते, सावरकर – गोलवालकर की वही धारा, आंबेडकर के संविधान को व्यावहारिक मानों में बेमानी बनाने के जरिए, गांधी को हराने के रास्ते पर तेजी से बढ़ रही है।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस और धारा-370 के कत्ल के बाद, अब नागरिकता कानून में ही स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक शर्त जोड़ने के जरिए, भारतीय संविधान की बराबरी की आत्मा की ही हत्या की जा रही है। और यह सब ऐसे छल-कपट के सहारे किए जा रहा है, जिसका नकाब बार-बार खिसक जाता है बल्कि कहना चाहिए कि खिसका दिया जाता है, जिससे वर्तमान शासकों के मुस्लिम विरोधी होने का संदेश दिया जाता रहे।
मिसाल के तौर पर, पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों को धार्मिक उत्पीड़न से बचाने के नाम पर बहाए जा रहे ये झूठे आंसू, रोहिंगियाओं का जिक्र आते ही फौरन सूख जाते हैं, जिन्हें ‘भारत से चुन-चुनकर खदेड़ने’ को यही सरकार अपनी छप्पन इंची छाती के कारनामों में गिनती है।
इसी प्रकार, अल्पंख्यकों की दशा की चिंता पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांगलादेश पर ही खत्म हो जाती है और श्रीलंका, नेपाल, म्यांमार, जैसे पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों की दशा में उनकी कोई दिलचस्पी ही नजर नहीं आती है। क्यों? क्योंकि यहां ‘मुसलमानों द्वारा उत्पीडि़त’ का नैरेटिव ही नहीं बनता है। यहां तक कि पाकिस्तान के अहमदिया, अफगानिस्तान के हाजरा आदि भी इस चिंता के दायरे में नहीं आते हैं क्योंकि उनकी चिंता करना तो, मुस्लिम विरोधी-संदेश को ही कमजोर करेगा। इसे साधा जा रहा है शब्दों के एक सरासर नंगे सांप्रदायिक खेल के जरिए।
अमित शाह जितने जोर से एनआरसी के हथियार से ‘‘घुसपैठियों को चुन-चुनकर निकालने’’ का गर्जन करते आए हैं, उतने ही जोर से अब सीएबी के जरिए ‘‘शरणार्थियों के लिए दरवाजा खोलने’’ का आश्वासन दे रहे हैं। और दोनों में फर्क क्या है? बिना कागजात के हिंदू आदि आए तो शरणार्थी और मुसलमान आए तो घुसपैठिया! इस पर भी दावा यह कि यह सांप्रदायिक आधार पर विभाजन या मुसलमानों का विरोध नहीं है। यह तो सिर्फ गैर-मुसलमानों के हक में है।
क्या 2002 के दंगों में भूमिका के लिए बरसों तक, मोदी को छोड़कर बाकी दसियों हजार लोगों को अमरीका का वीसा दिया जाना, मोदी के खिलाफ फैसला नहीं था?
बहरहाल, नागरिक अधिकार विधेयक पर छिड़ी बहस ही इसका भी इशारा करती है कि सावरकर-जिन्ना के हाथों गांधी की यह हार भी अंतिम नहीं है।
फिर गांधी तो वैसे भी अकेले हों तब भी मैदान छोड़ने वाले नहीं थे, आज तो भारत की उनकी कल्पना के साथ जनता का बहुमत है।
0 राजेंद्र शर्मा लोकलहर के संपादक हैं।