
एक बात स्पष्ट है कि जब एक वर्ग-विभाजित दुनिया और समाज में कोई भी तकनीक वर्ग-निरपेक्ष नहीं हो सकती, तो भला कृत्रिम बुद्धिमत्ता इसका अपवाद कैसे हो सकती है? पूरी दुनिया के अमीर देश और महाकाय निगम जब इसके विकास में बेहिसाब पूंजी लगा रहे हैं तो जाहिर है कि निवेश की तुलना में इससे कई गुना मुनाफे की उम्मीद में वे ऐसा कर रहे हैं, न कि लोगों की भलाई की भावना से बेचैन होकर।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता खुद तकनीकी विकास का ही आधुनिकतम चरण है। यह देशों के संबंधों में और देशों के भीतर सामाजिक और वर्गीय समूहों के संबंधों में उसी प्रक्रिया को और ज्यादा तेज कर देगी, जो पहले से ही जारी है।
सारी नयी तकनीकें विकसित पूंजीवादी देशों और एकाधिकारवादी बड़े निगमों के मालिकाने में विकसित हो रही हैं, और वे इस सारे विकास का इस्तेमाल अकूत मुनाफा उगाहने के लिए कर रहे हैं तो जाहिर है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानि एआई के साथ भी यही होने वाला है।
तकनीकी विकास इंसान को उजरती श्रम से मुक्ति दिला सकता है, एक समय असंभव से लगने वाले असंख्य सपनों को साकार कर सकता है, काल्पनिक स्वर्ग को धरती पर उतार कर ला सकता है; बशर्ते कि उसका इस्तेमाल इंसानियत की बेहतरी के लिए किया जाए, उस पर मालिकाना मुट्ठी भर लोभी-लालची धन-पशुओं का न हो।
पूरी दुनिया में आर्थिक प्रगति का अधिकांश लाभ बहुत थोड़े से देशों, और देश के भीतर थोड़े से लोगों के हाथों में जा रहा है। सारे तकनीकी विकास का फायदा भी इन्हीं को मिल रहा है। जाहिर है कि एआई के विकास से यह खाई और तेजी से चौड़ी होती जाएगी।
हम लगातार तकनीकी विकास कर रहे हैं, फिर भी हमारे देश में पिछले वर्षों में वास्तविक मजदूरी में गिरावट आयी है। ‘पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वेक्षण’ (पीएलएफएस) के अनुसार, एक वेतनभोगी पुरुष कर्मचारी का मासिक वेतन पिछले 7 वर्षों में 12,665 रुपये से घटकर 11,858 रुपये और स्वरोजगार वाले पुरुष कर्मचारी का वेतन 9,454 रुपये से घटकर 8,591 रुपये हो गया है।
महिला श्रमिकों के लिए भी इसी तरह की गिरावट आयी है। जबकि जीवन-यापन का खर्च बढ़ चुका है। ‘घरेलू उपभोग सर्वेक्षण’ के अनुसार, औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय बढ़ कर ग्रामीण क्षेत्र में 4,226 रुपये और शहरी क्षेत्र में 6,996 रुपये हो गया है। यह भारत की पूरी आबादी का औसत है। तो नीचे की 50 प्रतिशत आबादी का क्या हाल होगा? और नीचे की 25 प्रतिशत आबादी की हालत तो और भी बदतर होगी।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ 2023 के एक लेख में बताते हैं कि 2014-15 और 2021-22 के बीच की कृषि क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी की वृद्धि दर प्रति वर्ष 1 प्रतिशत से कम थी। दरअसल कृषि क्षेत्र की वास्तविक मजदूरी वृद्धि दर 0.9%, गैर-कृषि क्षेत्र की 0.3% और निर्माण क्षेत्र की (-0.02%) थी।
निर्माण क्षेत्र में तो मजदूरी वृद्धि दर ऋणात्मक हो गयी। यानि मजदूरी बढ़ने की बजाय घट गयी। इसकी बजाय ‘सामान्य उपभोक्ता मूल्य सूचकांक’ का इस्तेमाल करने पर तो ये दरें और भी कम हो जाती हैं। मजदूरी में ठहराव का यही पैटर्न 2022 के अंत तक जारी रहा। स्पष्ट है कि पिछले आठ वर्षों में अखिल भारतीय स्तर पर वास्तविक मजदूरी में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। कुल मिलाकर, तथ्य यह है कि देश में वास्तविक मजदूरी आज भी उतनी ही है जितनी 2014-15 में थी।
दूसरी ओर 31 जनवरी 2025 को संसद में पेश 2024-25 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक कॉरपोरेट का मुनाफा 15 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है लेकिन कर्मचारियों की सैलरी इसके मुताबिक नहीं बढ़ी है। सर्वे में दावा किया गया है कि कंपनियों का मुनाफा बढ़ने के बावजूद उनके कर्मचारियों के वेतन में कमी आई है। वित्त वर्ष 2024 में कॉरपोरेट इंडिया का मुनाफा 22.3% बढ़ा लेकिन रोजगार में सिर्फ 1.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
इससे जाहिर है कि तकनीकी विकास का इस्तेमाल मजदूरों की छंटनी करके लागत घटाने और मुनाफा बढ़ाने में किया जा रहा है। समाज में असमानता बढ़ रही है। भारत में शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के हाथ में कुल आय का 22.6 प्रतिशत जा रहा है। यह दुनिया में सबसे अधिक है। ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और अमरीका से भी अधिक।
इसी तरह भारत की कुल संपदा का 40.1 प्रतिशत मात्र शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों के हाथ में है। सन 2000 के बाद की तकनीकी प्रगति ने इस खाई को और तेजी से चौड़ा किया है।
ऐसा नहीं है कि वर्गीय भेदभाव को बढ़ाना एआई से एकमात्र संभावित खतरा है। यह तो इसके मालिकाने से जुड़ा है। इसके अलावा भी तमाम आशंकाएं इससे जुड़ी हुई हैं।
एआई और डीप लर्निंग मॉडल को समझना उन लोगों के लिए भी मुश्किल होता है जो सीधे तकनीक के साथ काम करते हैं। एआई एल्गोरिदम किस डेटा का उपयोग करते हैं, या वे अपने निष्कर्षों पर कैसे और क्यों पहुंचते हैं, वे पक्षपातपूर्ण या असुरक्षित निर्णय क्यों ले सकते हैं इस संबंध में पारदर्शिता की बेहद कमी है।
ओपनएआई और गूगल डीपमाइंड के पूर्व कर्मचारियों ने दोनों कंपनियों पर अपने एआई उपकरणों के संभावित खतरों को छिपाने का आरोप लगाया है। यह गोपनीयता आम जनता को संभावित खतरों से अनजान रखती है।
एआई-संचालित जॉब ऑटोमेशन एक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि इस तकनीक को मार्केटिंग, मैन्युफैक्चरिंग और हेल्थकेयर जैसे उद्योगों में अपनाया जा रहा है। मैकिन्से के अनुसार, 2030 तक, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वर्तमान में 30 प्रतिशत तक के कार्यों को स्वचालित किया जा सकता है।
अश्वेत और स्पेन मूल के सबसे ग़रीब और कमजोर कर्मचारियों पर इस बदलाव का सबसे ज्यादा कुठाराघात होगा। गोल्डमैन सैक्स ने तो यहां तक कहा है कि एआई ऑटोमेशन के कारण 30 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियां खत्म हो सकती हैं।
एआई झूठ और सच का विभ्रम पैदा कर सकता है। इसे ‘डीपफेक’ (बिल्कुल असली लगने वाले नकली) कहते हैं। इससे सामाजिक छलकपट और धोखाधड़ी की घटनाएं बढ़ जाएंगी।
राजनेता अपने विचारों को बढ़ावा देने के लिए इसका इस्तेमाल अभी से करने लगे हैं। इसका एक उदाहरण फ़र्डिनेंड मार्कोस जूनियर है, जो फिलीपींस के 2022 के चुनाव के दौरान युवाओं के वोटों को हासिल करने के लिए एक टिकटॉक ट्रोल सेना का इस्तेमाल कर रहा था।
ऑनलाइन मीडिया और समाचार एआई द्वारा बनायी गयी छद्म छवियां और वीडियो, एआई वॉयस चेंजर (आवाज बदलने वाले) के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में घुसपैठ करने लगी हैं। ये तकनीकें यथार्थवादी फ़ोटो, वीडियो, ऑडियो क्लिप बनाना या किसी मौजूदा चित्र या वीडियो में एक व्यक्ति की छवि को दूसरे से बदलना आसान बनाती हैं।
इसके सबसे आसान शिकार बच्चे होंगे, उनका शोषण आसान हो जाएगा। ग़लत मंशा वाले लोगों के पास गलत सूचना और युद्ध प्रचार साझा करने का एक और रास्ता है, जिससे एक दुःस्वप्न का परिदृश्य बनता है जहां विश्वसनीय और झूठे समाचार के बीच अंतर करना लगभग असंभव हो सकता है। एआई आधारित वॉयस क्लोनिंग से फोन धोखाधड़ी पहले से ही काफी बढ़ चुकी है। आपराधिक गतिविधियों की बाढ़ आ जाएगी।
एआई के सहयोग से निरंकुश सरकारें अपने नागरिकों की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों का हनन करने लगी हैं। एआई निगरानी और फेस रिकॉग्निशन (चेहरा पहचानने की तकनीक) के चलते लोगों की स्वतंत्र आवाजाही, मेलजोल, मीटिंग, धरना-प्रदर्शन और जायज मांगों के लिए किये जा रहे प्रतिरोधों पर निगाह रखना और उनका दमन दुनिया भर में आम हो चुका है। एआई आधारित पुलिसिया और खुफिया निगरानी के माध्यम से सत्ताधारी वर्ग अपनी सत्ता को सुरक्षित और पुख्ता करने लगा है।
एआई के चलते अब लोगों को अपने निजी डाटा को सुरक्षित रख पाना मुश्किल हो गया है, क्योंकि एआई अपने प्रशिक्षण के दौरान हर संभव डाटा तक पहुंच बना लेता है।
एआई पहले से व्याप्त पूर्वाग्रहों को और बढ़ा रहा है। एआई का प्रशिक्षण पहले से विद्यमान बेशुमार डाटा से होता है। चूंकि हम तमाम पूर्वाग्रहों से भरे हुए सामाजिक वातावरण में ही रहते हैं, इसलिए इस पूर्वाग्रह से भरे हुए और पक्षपातपूर्ण डाटा से प्रशिक्षित एआई भी ऐसे ही पूर्वाग्रह और पक्षपातपूर्ण निष्कर्षों पर पहुंचता है। यह बड़ी आसानी से बहुसंख्यकवादी नजरिये में प्रशिक्षित हो सकता है।
एआई के शोधकर्ता मुख्य रूप से पुरुष हैं, जो एक निश्चित नस्लीय, जातीय जनसांख्यिकी से आते हैं, जो उच्च सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों में पले-बढ़े हैं, और जो मुख्यतः विकलांग लोग नहीं हैं, अतः इनके द्वारा विकसित एआई भी पुरुषवादी और अश्वेतों, स्त्रियों, ग़रीबों, दलितों-पिछड़ों-आदिवासियों तथा विकलांगों के प्रति दुर्भावनापूर्ण हो सकता है, उनका मजाक उड़ानेवाले तथा छींटाकशी करने वाले निष्कर्ष निकाल सकता है।
यूनेस्को के अनुसार, दुनिया की 7,000 प्राकृतिक भाषाओं में से केवल 100 का उपयोग शीर्ष चैटबॉट्स को प्रशिक्षित करने के लिए किया गया है। हम जानते ही हैं कि 90 प्रतिशत ऑनलाइन उच्च शिक्षा सामग्री पहले से ही यूरोपीय संघ और उत्तरी अमेरिकी देशों द्वारा उत्पादित की जाती है, जिससे एआई के प्रशिक्षण डेटा को ज्यादातर पश्चिमी स्रोतों तक सीमित कर दिया जाता है। अतः उसके निष्कर्ष भी पश्चिमपरस्त होंगे।
एआई से नैतिक खतरे भी ढेर सारे हैं। इसके सहारे ऐसे बयान दिए जा सकते हैं जो पहली नज़र में तो विश्वसनीय लगते हैं लेकिन निराधार होते हैं या पूर्वाग्रहों को दर्शाते हैं। इससे गलत सूचना, संचार माध्यमों में अविश्वास, चुनावों में हस्तक्षेप और बहुत कुछ हो सकता है, जिससे अंततः संघर्षों को बढ़ावा मिलने और शांति में बाधा उत्पन्न होने का जोखिम बढ़ सकता है।
एआई के सहारे नफरती बयानों-भाषणों को ज्यादा अधिकृत और विश्वसनीय तरीक़े से फैलाया जा सकता है, खास करके अगर इसमें राजनीतिज्ञों की रुचि शामिल हो।
एआई संचालित एल्ग़ॉरिदम वित्तीय बाजारों में कुछ निहित हितों के पक्ष में शेयरों में कृत्रिम तेजी या मंदी पैदा करके अवांछित आपाधापी और वित्तीय संकट पैदा कर सकते हैं, जो अंततः बाजार से आम निवेशकों के मोहभंग और अविश्वास की ओर ले जा सकता है।
एआई पर बढ़ती निर्भरता के चलते साहित्य, संगीत, नृत्य, गायन, वादन, बागवानी जैसी मानवीय रचनात्मकता और संवाद कौशल, सहानुभूति, प्रेम, करुणा जैसी भावनाएं और उनकी अभिव्यक्ति भी कुंद होने लग सकती है, क्योंकि ये मनुष्य के अपने पर्यावरण और सामाजिक परिवेश के बीच सहस्राब्दियों के अंतर्संघर्ष और अंतःक्रिया के फलस्वरूप विकसित हुई हैं।
यह बात आज भले दूर की कौड़ी लगे, लेकिन एआई का अगला चरण एजीआई (आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस, यानि कृत्रिम सामान्य बुद्धिमत्ता) और कृत्रिम सुपर इंटेलिजेंस के दौर में यदि एआई स्वतः संवेदनशील होकर मनुष्य के नियंत्रण से परे चला गया तो इसके परिणाम समूची मनुष्यता के लिए विनाशकारी हो सकते हैं।
2016 के एक खुले पत्र में, एआई और रोबोटिक्स शोधकर्ताओं सहित 30,000 से अधिक व्यक्तियों ने एआई आधारित स्वायत्त हथियारों में निवेश के खिलाफ विरोध किया। उन्होंने लिखा, “आज मानवता के लिए मुख्य प्रश्न यह है कि वैश्विक एआई हथियारों की दौड़ शुरू होने दी जाए या इसे शुरू होने से रोका जाए।”
इसी तरह, 30 मई 2023 को, ‘सेंटर फॉर एआई सेफ्टी’ ने मानवता के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता के खतरे के बारे में सार्वजनिक चेतावनी जारी की। 350 से अधिक वैज्ञानिकों, व्यावसायिक अधिकारियों और सार्वजनिक हस्तियों द्वारा हस्ताक्षरित एक-वाक्य के बयान में कहा गया है: “महामारी और परमाणु युद्ध जैसे अन्य सामाजिक पैमाने के जोखिमों के साथ-साथ एआई से विलुप्त होने के जोखिम को भी कम करना वैश्विक प्राथमिकता होनी चाहिए।”
आश्चर्यजनक यह है कि इस पर हस्ताक्षर करने वालों में अन्य बड़े नामों के अलावा गूगल के डीपमाइंड के सीईओ डेमिस हस्साबिस और ओपनएआई के सीईओ सैम आल्टमैन भी शामिल हैं, जो एआई को विकसित करने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं।
दरअसल, आज पूंजीवादी लोकतंत्र झूठा साबित हो चुका है। यह खुद विज्ञान-विरोधी कामों में मशगूल हो चुका है। यह न केवल आर्थिक भेदभाव को, बल्कि सामाजिक भेदभाव और पोंगापंथ को बढ़ावा देकर कॉरपोरेट हितों को पूरा करने का जरिया मात्र बन कर रह गया है।
यह लोकतंत्र के नाम पर सबको गुमराह करके वर्चस्वशाली वर्गों की प्रभुता को बरक़रार रखने का तंत्र बन चुका है। यह जाहिरा तौर पर जनतंत्र की बजाय धनतंत्र में तब्दील हो चुका है। पूरी दुनिया में बार-बार इसका मुखौटा उतरता जा रहा है और इसका वास्तविक फासीवादी चेहरा दिखता जा रहा है।
पहले हमारी कक्षाओं में निबंध के विषय होते थे कि “विज्ञान वरदान है या अभिशाप?” निष्कर्ष को तौर पर हम आज भी यही कह सकते हैं कि पूरी दुनिया के उत्पादन में लगे मेहनतकश वर्गों को आगे आना होगा, न केवल अपने देश के भीतर, बल्कि वैश्विक पैमाने पर भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए जन-संघर्षों की झड़ी लगा देनी होगी।
विज्ञान पर पहला हक़ मेहनतक़शों का है। क्योंकि विज्ञान एक उपयोगी सेवक है, किंतु क्रूर और बेरहम मालिक है। यह मनुष्यता को प्यार करने वाले लोगों के हाथों में वरदान होता है, लेकिन लोभ-लालच की शक्तियों के हाथ में अभिशाप बन जाता है।
हमें आगे बढ़कर विज्ञान और तकनीक की बागडोर अपने हाथों में लेनी होगी, ताकि इसका इस्तेमाल इस दुनिया को लोकतांत्रिक, खूबसूरत, रचनात्मक, प्रेम और आत्मीयता से सराबोर दुनिया बनाया जा सके, स्वर्ग को धरती पर उतारा जा सके।
(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)