March 12, 2025

नब्बे के दशक में नरसिम्हा राव सरकार द्वारा जब भारत में नव उदारवादी नीतियां लाई गई थीं, उसी समय भूतपूर्व राजनयिक पवन वर्मा की एक महत्वपूर्ण किताब ‘द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लॉस’ आई थी, जिसका हिन्दी अनुवाद ‘मध्यवर्ग की अजीब दास्तान’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस महत्वपूर्ण पुस्तक में यह बताया गया था, कि उदारीकरण की कोख से पैदा हुआ ये वर्ग किस तरह भविष्य में फासीवाद का आधार बन सकता है?

ज्ञातव्य है कि उस समय तक अभी भाजपा सरकार सत्ता में नहीं आई थी। इसी पुस्तक की समीक्षा करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार करण थापर ने लिखा था, “पवन की पुस्तक भारतीय मध्यवर्ग की परखच्चे उड़ाने वाली आलोचना करती है।‌ वे हमें आईना दिखाते हैं और गहन विश्लेषण और तथ्यों के जरिए असलियत उघाड़कर रख देते हैं कि आज हम दरअसल क्या हो चुके हैं।”

इस पुस्तक में मध्यवर्ग के बारे में आज के संदर्भों में की गई भविष्यवाणी क़रीब-क़रीब सटीक बैठती है। आज भारतीय फासीवाद का मुख्य आधार यही मध्यवर्ग बन चुका है। सरकार द्वारा इस वर्ग को लुभाने की अनेक कोशिशों के बावजूद क्या यह वर्ग व्यवस्था के प्रति निराश हो रहा है?

जब भारत में नव-उदारीकरण की नीतियां लाई गईं, तब काफ़ी प्रचार किया गया था, कि इन नीतियों से भारत में बड़ा ख़ुशहाल मध्य वर्ग फलेगा-फूलेगा। नए-नए आए केबल टीवी पर एम. टीवी जैसे अनेकों चैनल इस नए मध्य वर्ग की जीवन शैली और शौकि़या रंग-रोगन को पेश करते विज्ञापन, सीरियल आदि बनने लगे, लेकिन यह सपना जल्द ही टूटता नज़र आया।

यू.पी.ए. सरकार के दूसरे कार्यकाल (2009-14) तक आते-आते अच्छी डिग्रियां हासिल नौजवानों को भी अच्छे वेतन वाली नौकरियां मिलना मुश्किल हो गया, उनके पैकेज घटने लगे। मध्य वर्ग के इस गुस्से और निराशा को लक्षित करते हुए भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने 2014 में चुनाव के समय ख़ुद को मध्य वर्ग के रखवाले के तौर पर पेश किया।

2014 में भारत सरकार पर क़ाबिज़ होने की होड़ में मध्य वर्ग में अपना वोट बैंक मज़बूत करने के लिए मोदी ने कई लोक-लुभावने वादे किए। भाजपा की मुख्य संगठन–राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) का भी मुख्य जन आधार मध्य वर्ग और ख़ासतौर पर निम्न मध्य वर्ग में है।

आर.एस.एस. की अन्य शाखाओं का आधार भी यही आबादी है, इससे ही संघ को अपनी मुख्य ताक़त हासिल होती है, इसलिए भाजपा और आर.एस.एस. दोनों के लिए यह ज़रूरी है, कि मध्य वर्ग के बड़े हिस्से को अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश की जाए। लेकिन क्या भाजपा के सत्ता में आने के बाद भारत के मध्य वर्ग का जीवन स्तर बेहतर हो गया है,जैसा कि गोदी मीडिया दावा करता नहीं थकता?

भारत में मध्य वर्ग की बेहतरी के बड़े दावे किए जाते हैं। इस उद्देश्य के लिए मोबाइलों, गाड़ियों, शहरों में मकानों आदि की बिक्री के आंकड़े पेश किए जाते हैं, लेकिन अगर इन आंकड़ों को ध्यान से देखा जाए तो समझ आता है, कि भारत में इस ख़ुशहाल मध्य वर्ग का दायरा कितना छोटा है और भारत में होने वाली टिकाऊ वस्तुओं की बिक्री जैसे गाड़ियां, घर, फ़र्नीचर, बिजली उपकरण, अन्य घरेलू सामान आदि शामिल है; में बड़ा हिस्सा बहुत ही छोटे दायरे यानी ऊपरी 15-20% परिवारों तक सीमित है।

यही तबक़ा इन उपभोक्ता उत्पादों का बड़ा ग्राहक है,यही तबक़ा शेयर बाज़ार में पैसा निवेश करने वाले नए वर्ग में शामिल है। जिसके तहत लगातार प्रचारित किए जा रहे शेयर बाज़ार की तरक़्क़ी हमें दिखती है। जहां तक मध्य वर्ग की टिकाऊ वस्तुओं की ख़रीदारी की बात है, तो यह ज़्यादातर क़र्ज़ों पर निर्भर होती जा रही है। जिसके कारण आज मध्य वर्ग का अच्छा-ख़ासा हिस्सा क़र्ज़ के जाल में फंसता जा रहा है।

लोकसभा चुनाव 2024 से पहले सरकारी विभाग ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय’ (NSSO) की रिपोर्ट आई थी, जिसमें भारत के “पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था”, “विश्व गुरु” और “विकसित भारत” आदि जैसे खोखले सरकारी दावों की पोल खुली और ऐसे भारत की तस्वीर सामने आई, जहां के मध्य वर्ग की हालत लगातार ख़राब होती जा रही है, लगातार बेचैनी बढ़ती जा रही है।

‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय’ संस्था एक प्रतिष्ठित संस्था है और 1972 से हर 5 साल में आंकड़े जारी करती आई है। अपने सर्वेक्षण में इसके द्वारा तुलनात्मक बड़ा नमूना, 2.6 लाख परिवार, शामिल किए जाते हैं। लेकिन मोदी सरकार ने इन आंकड़ों पर ध्यान तो क्या देना था, बल्कि अपने परंपरागत रवैये के मुताबिक़ इन्हें रद्द ही कर दिया।

इन आंकड़ों के मुताबिक़ भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ऊपर के 5% उपभोक्ताओं का मासिक ख़र्च 10,500 रुपए है, जबकि शहरों में यह 20,500 रुपए है। डॉलर में देखा जाए तो यह 100-125 से लेकर 300 डॉलर महीना ही बैठता है, जो कि संसार के अन्य विकसित पूंजीवादी देशों के मुक़ाबले काफ़ी कम है। इस पैमाने के मुताबिक़ भारत ग़रीब देशों की सूची में ही आता है। यह आंकड़ा ज़ाहिर है कि भारत के विकसित होने के दावों की पोल खोलता है।

दूसरा आंकड़ा इससे भी अधिक हैरान करने वाला है। शीर्ष अमीरों की खपत के आंकड़ों के मुताबिक़ भी भारत ग़रीब देशों की श्रेणी में ही आता है, लेकिन इन अमीरों की खपत ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीब तबक़े से 8 गुना और शहरों में ग़रीबों की खपत से 10 गुना ज़्यादा है।

यानी भारत में आम परिवारों की सारी कमाई बहुत ही बुनियादी ज़रूरतों में ख़र्च हो जाती है, इसीलिए यहां चुनावों में हज़ार रुपए महीना की गारंटी भी आम लोगों को बहुत बड़ा वादा लगता है। इस कारण भारत के लोगों का विकसित देशों के आम लोगों के रहन-सहन के साथ मुक़ाबला करना अपने आपमें ही अप्रासंगिक और फ़िज़ूल है और सरकारी दावे सिवाय गप्पबाजी के और कुछ नहीं हैं।

2022 में ‘आर्थिक सलाहकार काउंसिल’ द्वारा तैयार की गई ‘भारत में ग़ैर-बराबरी की स्थिति’ रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में 25,000 रुपए प्रति महीना कमाने वाले लोग शीर्ष 10% अमीरों में आते हैं। भारत में टिकाऊ वस्तुओं की ख़रीदारी में बड़ा हिस्सा अमीरों और ऊपरी मध्य वर्ग का है, जो कुल आबादी में बहुत छोटा हिस्सा बनता है।

छोटे तबक़े की ख़रीद हिस्सेदारी काफ़ी कम है। ऊपर से, पिछले 10-15 सालों से एक नई परिघटना सामने आई है कि इस तबक़े को ख़रीदारी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा क़र्ज़ों पर निर्भर होना पड़ रहा है। यानी इस तबक़े में कि़श्तों पर सामान लेने की परिघटना गंभीर हद तक बढ़ चुकी है और इसने हुकूमती दायरे के बुद्धिजीवियों को भी चिंता में डाल दिया है।

‘वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट’ के मुताबिक़ कुल क़र्ज़ों में असुरक्षित निजी क़र्ज़ों का हिस्सा लगातार बढ़ रहा है। कुल क़र्ज़ों में निजी क़र्ज़ों का हिस्सा एक-तिहाई से बढ़ गया है।

बैंकों की पिछले सालों में ब्याज़ दरों को घटाने की नीति से तात्कालिक फ़ायदा लेते हुए मध्य वर्ग के बीच वाले हिस्से और ऊपरी तबक़े ने बड़े स्तर पर क़र्ज़ा लिया और टी.वी, स्मार्टफ़ोन, दो-पहिया वाहन, कारें आदि जैसे घर की ज़रूरत के अलावा पढ़ाई-लिखाई या खेती आदि के कामों के लिए बड़े स्तर पर क़र्ज़ लिए।

बैंकों ने भी तुरंत क़र्जे़ के इस खेल में धड़ाधड़ क़र्जे़ दिए। ज़ीरो डाउन पेमेंट पर सामान बेचने की एक बाढ़-सी आ गई। मुनाफ़े की इस अंधी दौड़ में सरकारी बंदिशों को बाईपास करने के लिए शैडो बैंकिंग का चलन भी सामने आया। बात को हाथ से निकलता देख जब बैंकों ने हाथ पीछे खींचना शुरू किया, तो क़र्ज़ देने के लिए म्युचुअल फंड और बीमा कंपनियां आगे आईं।

लेकिन तथ्य यह है कि ये सभी संस्थाएं आपस में इस हद तक गुथी हुई हैं कि अगर एक डूबता है, तो साथ ही दूसरे को भी ले डूबेगा। इस परिघटना से चिंतित होकर अब कई पूंजीपति अपने बड़े हितों को देखते हुए ख़ुद ही ज़ीरो डाउन पेमेंट पर क़र्ज़ा देने की बैंकों की नीतियों को बंद करने के लिए सरकार पर ज़ोर डाल रहे हैं।

नव उदारवादी नीतियों के चलते हुए तुलनात्मक तौर पर तेज़ रफ़्तार पूंजीवादी विकास के साथ भारत में वर्गीय ध्रुवीकरण काफ़ी बढ़ा है। इस समय भारत की लगभग 80% आबादी मज़दूर, अर्ध-मज़दूर है। आर्थिक संकट और साथ ही मोदी सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों ने बचे-खुचे मध्य वर्ग के बड़े हिस्से का ही ख़ून चूस रखा है और लगातार इसे बढ़ा रहा है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के एक शोध संस्थान ‘प्यू रसर्च सेंटर’ के अनुसार अकेले कोरोना काल में ही भारत के मध्य वर्ग की गिनती 9.9 करोड़ से घटकर 6.6 करोड़ रह गई थी। निजीकरण और श्रम क़ानूनों में संशोधन द्वारा सरकारें लगातार कर्मचारियों के भत्तों, पेंशन योजनाओं आदि पर होने वाले ख़र्च घटा रही हैं यानी स्थाई सरकारी नौकरियों का “स्वर्ग” मध्य वर्ग के लिए लगभग ख़त्म हो चुका है और उसे निजी क्षेत्र के असुरक्षित और कम गुणवत्ता वाले रोज़गार के हवाले कर दिया गया है।

अगली सरकारी नीति जो बड़े स्तर पर मध्य वर्ग की ख़ुशहाल परत का जीवन स्तर नीचे गिरा रही है, वह बचत खातों पर जमाकर्ताओं को हासिल ब्याज़ दरों का नीचे जाना। अलग-अलग तरह के बचत खातों पर मिलने वाले ब्याज़ 2014 से लगातार घटते गए हैं।

इसका मुख्य कारण पूंजीपतियों को कम ब्याज़ दरों पर क़र्ज़ा निवेश के लिए अधिक धन आदि उपलब्ध कराना है। जिसके लिए ज़रूरी है कि जमाकर्ताओं को दी जाने वाली ब्याज़ दरों को नीचे रखा जाए।

मिसाल के तौर पर वृद्ध नागरिक बचत खाता योजना, राष्ट्रीय बचत आवर्ती जमाखाता योजना, राष्ट्रीय बचत सावधि जमा खाता योजना पर एक दो और तीन साल वाले खातों पर ब्याज़ दर और स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के स्थाई जमा खातों पर 5-10 साल में पूरे होने वाले प्लानों पर ब्याज़ दर 2014 में 8-9% से घटकर आज 5-6% के दायरे में ही रह गई है।

बढ़ती महंगाई के साथ जोड़कर देखें,तो ये ब्याज़ दरें काफ़ी हद तक महंगाई की दर से भी नीचे ही चल रही हैं। इसी कारण भारत में जमा बचत तेज़ी से घटी है। सरकारी योजनाएं या बैंकों के जमा खातों में ब्याज पर पैसे रखना मध्य वर्ग के अच्छे ख़ासे हिस्से का अपना भविष्य सुरक्षित करने का भारत में लंबे समय से चल रहा तरीक़ा था, जो अब अप्रासंगिक होता नज़र आता है।

इसके साथ ही सरकारी कर्मचारियों के लिए भी पुरानी सुरक्षित पेंशन स्कीमों की जगह नई पेंशन योजना लागू की गई है, जिसमें सरकारी कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली पेंशन रक़म सुरक्षित नहीं, बल्कि बहुत हद तक मंडी की सट्टा बाज़ारी के उतार-चढ़ाव पर निर्भर रहेगी। आज बढ़ती महंगाई, रुपए का लगातार गिरता मूल्य, महंगाई के साथ मेल ना खाते वेतन, लोगों पर लगातार बढ़ते करों का बोझ आदि मध्य वर्ग समेत मेहनतकश जनता के बड़े हिस्से का बुरा हाल कर रहे हैं।

कोविड महामारी के बाद निम्न और ग़रीब तबकों के साथ-साथ इस वर्ग के हालात भी बहुत बिगड़े।‌ प्राइवेट सेक्टरों में काम करने वाले कर्मचारी बड़े पैमाने पर या तो नौकरी से निकाले गए या बहुत कम वेतन पर काम करने के लिए मजबूर हुए।

महामारी के दौरान जब स्वास्थ्य बीमा होने के बावजूद इस वर्ग के बहुत बड़े तबके तक को सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों में चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिली।‌ बहुतों को इसके इंतजार में अपनी कारों तक में दम तोड़ना पड़ा, तब उसका यह भ्रम भी टूट गया कि ग़रीबी और बदहाली के समुद्र में वे कुछ समृद्धि के टापू बनाकर रह सकते हैं।‌

इसके बाद ही मध्यवर्ग का बड़े पैमाने पर वैध और अवैध रूप से यूरोप और अमेरिका में पलायन शुरू हुआ, हालांकि ये प्रवृत्ति पहले से थी, लेकिन इस दौर में यह तेजी से बढ़ी है। परन्तु इन देशों में भी बढ़ते आर्थिक संकट के कारण अवैध प्रवासियों को बाहर निकाला जा रहा है, इससे इस वर्ग का संकट और गहराने की सम्भावना है।‌

मध्यवर्ग का यह गहराता संकट क्या देश को और गहरे फासीवादी संकट की ओर ले जाएगा? या भविष्य में कोई राह निकलेगी, इसका उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में छिपा है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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