6 दिसम्बर 1992 को लाखों उन्मादी भीड़ ने उत्तर प्रदेश की अयोध्या में पुलिस प्रशासन के सहयोग से एक मध्यकालीन मस्ज़िद को गिरा दिया था, जिसके बारे में उसका मानना था कि यह मस्ज़िद उनके आराध्य श्रीराम के जन्मभूमि स्थित मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। इस घटना के अब तीन दशक से ज़्यादा बीत गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस स्थल पर राममंदिर निर्माण का आदेश देते हुए यह भी कहा था कि “ऐसे कोई ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिले हैं,जिससे कि यह सिद्ध हो,वहाँ पर किसी मंदिर को तोड़कर मस्ज़िद बनाई गई थी।”
अयोध्या में उस विवादित ज़मीन पर अधूरे राममंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री ने इस आशा से किया कि अगले 2024 के आम चुनाव में इसका राजनीतिक फ़ायदा उठाया जा सके, परन्तु उद्घाटन के माध्यम से देश भर में भारी उन्माद पैदा करने के बावज़ूद भाजपा को चुनाव में इस मुद्दे का बहुत लाभ नहीं मिल सका, विशेष रूप से; उत्तर प्रदेश में उसका प्रत्याशी अयोध्या क्षेत्र में लोकसभा सीट नहीं जीत सका। यही कारण है कि भाजपा को इस चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका और उसे अपने सहयोगियों के साथ मिली- जुली सरकार बनानी पड़ी।
हिन्दुत्व तथा राममंदिर मुद्दे पर आर्थिक मुद्दे जैसे-बेरोज़गारी और जाति जनगणना के सवाल प्रमुख हो गए। बौद्धिक वर्ग में एक ऐसी सोच भी उभरी कि भाजपा अब सम्भवतः इन मुद्दों से किनारा कर ले। जून 2022 में संघचालक मोहन भागवत ने एक बयान दिया था, कि “हर मंदिर में शिवलिंग खोजने और हर दिन एक नया विवाद शुरू करने की आवश्यकता नहीं है।” उन्होंने कहा था कि “अब ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा चल रहा है। इतिहास है, जिसे हम बदल नहीं सकते, वह इतिहास हमने नहीं बनाया, न ही आज के हिन्दू या मुसलमानों ने। यह उस समय हुआ, जब इस्लाम आक्रमणकारियों के साथ भारत में आया था। आक्रमण के दौरान स्वतंत्रता चाहने वाले लोगों के धैर्य को कमज़ोर करने के लिए मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था, ऐसे हजारों मंदिर हैं।” मोहन भागवत के बयान और भाजपा की कार्यपद्धति में क्या कोई अंतर्विरोध है? इसके बारे में आगे मूल्यांकन करूँगा।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि 1951 में संसद में भारतीय उपासना अधिनियम लागू किया गया था, जिसमें यह प्रावधान था कि किसी भी धार्मिक स्थल के धार्मिक स्वरूप वैसा ही बनाए रखा जाए, जैसा वह 15 अगस्त 1947 को था। इसमें बाबरी मस्ज़िद और राम जन्मभूमि को एक अपवाद माना गया था, इसके बावज़ूद आज हिन्दूवादी संगठन एक बार फ़िर मस्ज़िदों के नीचे मंदिर खोज रहे हैं, जिसमें न्यायपालिका का उन्हें खुला समर्थन भी हासिल है। काशी और मथुरा के मामले तो बहुत चर्चा में रहते हैं, लेकिन हाल में सम्भल कर जामा मस्ज़िद भी सुर्खियों में रही, यहाँ सर्वे के दौरान हुई हिंसा में पाँच लोगों की मौत हो गई है।
जब सम्भल मामला सुप्रीम कोर्ट में सुना जा रहा था, तब मुस्लिम पक्ष के सीनियर एडवोकेट हुजेफा अहमदी ने कोर्ट में कहा कि ”देश में ऐसे दस विवादों के मामले चल रहे हैं। इसमें फतेहपुर सीकरी में जामा मस्ज़िद के अंदर फतेहपुर सीकरी की दरगाह, अटाला मस्ज़िद जौनपुर, शमशी जामा मस्ज़िद बदायूँ, टीले वाली मस्ज़िद लखनऊ, कमलमौला मस्ज़िद धार मध्यप्रदेश, अजमेर शरीफ़ दरगाह राजस्थान, जुम्मा मस्ज़िद बेंगलुरु, ज्ञानवापी मस्ज़िद उत्तर प्रदेश, शाही ईदगाह मस्ज़िद उत्तर प्रदेश, जामा मस्ज़िद सम्भल उत्तर प्रदेश आदि प्रमुख स्थल हैं, इसके अलावा भी कम से कम सौ स्थानों को ऐसे ही विवादास्पद स्थल बताया जा रहा है। प्रश्न यह उठता है कि उपासना स्थल अधिनियम होने के बावज़ूद इस प्रकार के मामले कोर्ट में क्यों पहुँच रहे हैं।” वास्तव में यह एक उदाहरण है कि किस तरह हिन्दुत्ववादी तबकों ने न्यायपालिका में गहरी घुसपैठ कर ली है।
इसके पीछे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ का एक फैसला है,जिसमें उन्होंने कहा था कि,“यह विधेयक किसी भी धार्मिक स्थल के पुरातात्विक सर्वेक्षण की अनुमति देता है।” इस फैसले ने हिन्दुत्ववादी ताक़तों को बल प्रदान किया था तथा 1951 के उपासना स्थल अधिनियम को क़रीब-क़रीब निरर्थक कर दिया। 2024 के लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत न मिलने के बाद भाजपा एक बार फ़िर अपनी पूर्व हिन्दुत्व की राजनीति पर लौट गई है। हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव में उसकी सफलता के पीछे इसकी बड़ी भूमिका बताई जा रही है। महाराष्ट्र चुनाव में योगी आदित्यनाथ का यह नारा ‘बटेंगे तो कटेंगे’ काफ़ी प्रभावशाली रहा।
भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति की सफलता के पीछे हिन्दू समाज का यह मनोविज्ञान काम करता है, जिसकी जड़ें मध्यकाल, लम्बे मुस्लिम शासन तथा देश विभाजन की भयानक स्मृतियों से जुड़ी हैं। संघ परिवार ने यह इतिहास दृष्टि पेश की, कि मुसलमानों ने इस देश पर हमला किया,लोगों को मुस्लिम बनाया तथा हिन्दुओं के पूजा स्थलों के नष्ट किया। देश विभाजन के लिए वर्तमान भारतीय मुसलमान ज़िम्मेदार हैं, परन्तु यह इतिहास को देखने का बिलकुल एकांगी और साम्प्रदायिक दृष्टिकोण है।
भारतीय समाज में इस्लाम के आने से पहले भी हिन्दुओं ही के विभिन्न सम्प्रदायों के बीच संघर्ष होता रहा और बौद्धधर्म के पतन के बाद हजारों बौद्धधर्म स्थलों को हिन्दू मंदिरों में बदला गया, जिसमें आज हिन्दुओं के कुछ बड़े तीर्थस्थल भी है, जिन्हें बौद्ध मंदिरों से हिन्दू मंदिरों में बदल दिया गया। इस सम्बन्ध में ढेरों साहित्य भी उपलब्ध हैं। राहुल सांकृत्यायन ने भी विस्तार से इसके बारे में लिखा है।
भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना के लिए भी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था ; जिसमें जाति व्यवस्था प्रमुख थी, की बड़ी ज़िम्मेदारी थी, जिसमें लड़ने का काम कुछ ही जातियां करती थीं, जिसके कारण मुस्लिम शासकों ने बड़ी आसानी से इस भू-भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया, क्योंकि उस समय एक संगठित राष्ट्र की अवधारणा पैदा भी नहीं हुई थी। बड़े पैमाने पर दलित और पिछड़ी जातियों ने इस्लाम में निहित समानता के मूल्यों के कारण इस्लाम धर्म को अपनाया, निश्चित रूप से जबरन धर्म परिवर्तन की भी घटनाएँ हुई होंगी। बहुत सी उच्च जातियों के लोगों ने भी दरबार में ऊंँचा पद पाने के लिए धर्म परिवर्तन किया था।
इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम शासकों ने वर्चस्व की स्थापना के लिए बहुत से मंदिरों को तोड़ा था, जैसा कि मध्यकालीन इतिहास बड़े इतिहासकार इरफ़ान हबीब भी कहते हैं कि मध्यकाल में बहुत से हिन्दू मंदिरों को तोड़ा गया, लेकिन आधुनिक समय में हम न अतीत बदल सकते हैं और न ही उस इतिहास को। वास्तव में भाजपा का ये सारा विमर्श धार्मिक न होकर शुद्ध राजनीतिक है।
आज भारत में हिन्दू फासीवादी तत्व जानबूझकर इन सभी तथ्यों को छिपाते हैं। संघ परिवार का हिन्दू वर्ण व्यवस्था पर गहरा विश्वास है। वास्तव में हिन्दूराष्ट्र एक ब्राह्मण राष्ट्र ही होगा। इस सबके बावज़ूद बड़े पैमाने पर संघ परिवार ने दलित, पिछड़ों और आदिवासियों को अपने एजेंडे से जोड़ा है। संघ परिवार की यह गलत इतिहास दृष्टि ही आज धर्मनिरपेक्ष तत्वों के लिए एक चुनौती है। अगर हम आधुनिक भारत का इतिहास देखें, तो जवाहरलाल नेहरू के बाद कांग्रेस में धर्मनिरपेक्ष नीति का क्षरण होने लगा था।
आज वामपंथियों के एक बड़े तबके, कांग्रेस तथा अनेक बुद्धिजीवियों को ऐसा लगता है कि भाजपा और संघ परिवार के उग्र हिन्दू फासीवादी राजनीति का मुकाबला हम उदारवादी हिन्दुत्व की राजनीति से कर सकते हैं। वास्तव में इस नीति ने भाजपा को ही और मजबूत किया है। भाजपा का मुक़ाबला सच्ची धर्मनिरपेक्षता की नीति को लागू करने के संघर्ष से ही किया जा सकता है। बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस से हमारे लिए यही सबक है।
(स्वदेश कुमार सिन्हा लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)