December 21, 2024

बांग्लादेश में अराजकता की स्थिति है। कहा जा सकता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद के पांच अगस्त को देश से भागने के बाद से वहां भीड़ का राज है। शेख हसीना की पार्टी अवामी लीग से जुड़े ठिकानों, उसके कार्यकर्ताओं और समर्थकों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया है। इसका शिकार बहुत-से हिंदू भी बने हैं, जो अवामी लीग की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के कारण उसके समर्थक थे।

इस कथन का यह बिल्कुल मतलब नहीं है कि बांग्लादेश में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन नहीं हैं या हिंदू सांप्रदायिक कारणों से उनके निशाने पर नहीं आए हैं। हिंदू उपरोक्त दोनों कारणों से हमलों का शिकार बने हैं। तो कुल मिला कर कि अराजकता की कीमत इस समुदाय को भी चुकानी पड़ रही है।

अराजकता की स्थिति बनने का एक बड़ा कारण पुलिस का सीन से हट जाना है। जो जानकारियां उपलब्ध हैं, उनके मुताबिक छात्र आंदोलन के आखिरी दौर में बांग्लादेश की सेना ने तटस्थ रुख अपना लिया, जबकि पुलिस शेख हसीना सरकार के प्रति वफादार बनी रही। चार अगस्त जो व्यापक हिंसा हुई- जिसमें 14 पुलिसकर्मियों सहित 100 से ज्यादा लोग मारे गए- उसमें ज्यादातर जगहों पर भीड़ की टक्कर पुलिस बल से ही हुई थी। जब पांच अगस्त को अचानक देश का राजनीतिक परिदृश्य बदल गया, तो भीड़ ने पुलिसकर्मियों को निशाना बनाना शुरू किया। उस वजह से पुलिसकर्मी अधिकांश जगहों पर ड्यूटी से भाग खड़े हुए। इसी कारण अभी तक पुलिस व्यवस्था सामान्य रूप में बहाल नहीं पाई है।

यह निर्विवाद है कि प्रशासन की नई कार्यवाहक व्यवस्था पर इस्लामी ताकतों का प्रभाव है। इसकी एक मिसाल बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की पुण्यतिथि पर होने वाली छुट्टी को रद्द किया जाना है। शेख मुजीब की हत्या 15 अगस्त 1975 को की गई थी। शेख मुजीब को बांग्लादेश में धर्मनिपरेक्षता का प्रतीक माना जाता है। इसीलिए इस्लामी संगठनों का उनके प्रति हमेशा ही वैर भाव रहा है।

कौन है इस उथल-पुथल के पीछे?

बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार का पतन होते ही इन घटनाओं के पीछे विदेशी हाथ की चर्चा जोर पकड़ गई। यह चर्चा बांग्लादेश में उतनी नहीं है, जितना भारत सहित विदेशों में प्रबल रही है। भारतीय मीडिया में यह नैरेटिव हावी रहा कि इस घटनाक्रम के पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है। जबकि चीन और रूस समर्थक मीडिया में इसके लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराया गया।

पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के तार बांग्लादेश की इस्लामी ताकतों से जुड़े बताए जाते हैं। ये ताकतें हमेशा ही अवामी लीग के खिलाफ रही हैं। इसलिए पाकिस्तान की थ्योरी तो फिर भी समझी जा सकती है, लेकिन शेख हसीना के हटने से चीन या अमेरिका के क्या हित सधेंगे, इसे समझना कठिन बना रहा है।

जिस समय अमेरिका और चीन के बीच तीखी भू-राजनीतिक होड़ है, एक नेता को हटाने में दोनों ही देशों की समान दिलचस्पी होगी, यह सोचना ना सिर्फ दिलचस्प, बल्कि मनोरंजक भी है। बहरहाल, भारतीय मीडिया में शेख हसीना का एक कथित बयान प्रकाशित होने के बाद सारी चर्चा अमेरिका पर केंद्रित हो गई।

रविवार, 11 अगस्त को भारतीय मीडिया में छपी एक खबर में कहा गया था कि शेख हसीना ने इस घटनाक्रम के पीछे अमेरिकी हाथ का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि अमेरिका बांग्लादेश के सेंट मार्टिन द्वीप पर नियंत्रण चाहता था। हसीना ने कहा कि अगर ये द्वीप उसे दे देतीं, तो वे आज भी सत्ता में बनी रहतीं। लेकिन उसी रोज हसीना के बेटे सजीब वाजेद ने इस तरह के किसी बयान का खंडन कर दिया। सोशल मीडिया साइट ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में उन्होंने कहा कि उनकी मां ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया है।

मगर रूस और चीन समर्थक मीडिया इस खबर को तब तक ले उड़े थे। खंडन के बावजूद उन्होंने इसे हटाने की जरूरत नहीं समझी। माहौल इतना गरमाया कि अमेरिका को सफाई देनी पड़ी। उसने कहा कि बांग्लादेश की राजनीतिक उठापटक में उसकी कोई भूमिका नहीं है। हालांकि ऐसे खंडनों का कोई मतलब नहीं होता, मगर किसी आरोप पर यकीन के लिए उसके पक्ष में कुछ साक्ष्य या परिस्थितिजन्य सबूत तो होने ही चाहिए।

 यह तथ्य है कि पिछले कुछ वर्षों में शेख हसीना सरकार के साथ अमेरिका के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे। संभवतः इसका प्रमुख कारण चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव में बांग्लादेश को शामिल करने का शेख हसीना सरकार का फैसला था।

 जैसा कि होता है, जब कभी कोई देश अमेरिकी हितों के खिलाफ जाता है, तो अमेरिका वहां मानव अधिकार और लोकतंत्र के हनन का दुष्प्रचार शुरू कर देता है। ऐसा बांग्लादेश के मामले में भी हुआ था।

 इसी बीच सेंट मार्टिन द्वीप का मुद्दा उछला। सेंट मार्टिन बंगाल की खाड़ी के पूर्वोत्तर में स्थित एक छोटा कोरल द्वीप है। यह बांग्लादेश के दक्षिणी हिस्से में स्थित कॉक्स बाजार से लगभग नौ किलोमीटर दक्षिण में, म्यांमार के पास स्थित है।

 इस द्वीप का क्षेत्रफल केवल तीन वर्ग किलोमीटर है और यहां लगभग 3,700 लोग रहते हैं।

 यह द्वीप तब चर्चा में आया, जब विपक्षी दल- बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) पर आरोप लगा कि उसने अमेरिका को द्वीप बेच कर वहां एक सैन्य अड्डा बनवाने की योजना बनाई है। कहा गया कि इसके बदले बीएनपी की मदद करने का वादा किया है।

 तब कहा गया था कि शेख हसीना सरकार ने अमेरिका को यह द्वीप देने से इनकार कर दिया है।

ये बातें बिल्कुल निराधार हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। शेख हसीना के हटने के बाद अमेरिका के अनुकूल सामाजिक कार्यकर्ता- मोहम्मद युनूस- के नेतृत्व में वहां कार्यवाहक सरकार बनी है, जिससे अमेरिका खुश बताया जाता है। मुमकिन है कि बीएनपी के साथ भी अमेरिका की कोई अंदरूनी सहमति बनी हो। मगर अमेरिकी रणनीतिकारों का तर्क है कि शेख हसीना के हटने के बाद पैदा हुई अनिश्चिय की स्थिति अमेरिका के लिए ज्यादा कठिन हो सकती है।

 दक्षिणपंथी अमेरिकी विश्लेषकों का कहना है कि फिलस्तीन/हमास समर्थक इस्लामी गुटों के प्रभाव वाली बांग्लादेश की सरकार किसी रूप में अमेरिकी रणनीति के अनुकूल नहीं होगी।

 शेख हसीना पर भारत का प्रभाव था और भारत पर अमेरिकी प्रभाव है। जबकि अब जो सरकार बांग्लादेश में बनेगी, उस पर ना सिर्फ भारत का प्रभाव नहीं होगा, बल्कि वह भारत के प्रति वैर-भाव भी रख सकती है। शेख हसीना चीन के अनुकूल कोई फैसला लेते वक्त भारत की संवेदनशीलताओं का ख्याल रखती थीं। अगली सरकार ऐसी चिंता से मुक्त होगी। पूछा गया है कि आखिर अमेरिका बांग्लादेश में ऐसी स्थिति बनाना क्यों चाहेगा?

बहरहाल, यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शेख हसीना सरकार के पतन के बाद बांग्लादेश में हालात को अपने मुताबिक ढालने की कोशिशों में अमेरिकी एजेंसियां जुट गई होंगी। विभिन्न देशों में अमेरिकी हितों को साधने वाली कई एजेंसियां होती हैं। इनमें एनजीओ, थिंक टैंक, मीडिया, प्रभु वर्ग के पश्चिम समर्थक हिस्से आदि प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

लेकिन यह सब पटकथा की परिधि पर होने वाली घटनाएं हैं। यह कथा का केंद्रीय विषय नहीं हो सकतीं। केंद्रीय विषय तो यही है कि जन विरोधी आर्थिक नीतियों और तानाशाही रवैये से शेख हसीना जनता के विभिन्न तबकों को खुद से अलग करती गईं। उनके असंतोष की परवाह उन्होंने नहीं की। इसी असंतोष का विस्फोट 3 से 5 अगस्त तक हुआ। उस विस्फोट की चिनगारियां अभी भी भड़क रही हैं। इस बीच साइड रोल वाले किरदार भी सक्रिय हों और घटनाक्रम से अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हों, तो यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *