September 8, 2024

रविंद्र पटवाल 

उत्तराखंड राज्य सरकार की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य प्रति माह 45 हेक्टेयर भूमि को खोता जा रहा है। अंग्रेजी दैनिक, द टेलीग्राफ के साथ अपनी बातचीत में राज्य के एक अधिकारी ने पहचान न उजागर करने की शर्त पर बताया है कि, “हम सभी जानते हैं कि इस पर्वतीय राज्य में 71% भूमि वनाच्छादित है। लेकिन जिस तेजी से हम लगातार वन संपदा को खोते जा रहे हैं, यह वृहद मात्रा में हमारे जीवन को प्रभावित करने जा रहा है।” उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से स्थिति ठीक होने के बजाय बदतर हुई है। 2002 से 2023 के बीच उत्तराखंड ने आर्द्र प्राथमिक वनों में 27 हेक्टेयर (0.29%) की कमी, वन क्षेत्र के आकार में 20.7 किलो हेक्टेयर (0.13%) की कमी आ चुकी है।

सबसे अधिक देहरादून जिले में वन क्षेत्र घटा है, जो करीब 21,303 हेक्टेयर है, इसके बाद हरिद्वार में 6826 हेक्टेयर, चमोली गढ़वाल 3636 हेक्टेयर, टिहरी गढ़वाल 2671 हेक्टेयर और पिथौरागढ़ में 2451 हेक्टेयर वन भूमि खत्म हो चुकी है।

भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड के तीन जिलों नैनीताल, उधम सिंह नगर और हरिद्वार में फारेस्ट कवर में नकारात्मक विकास दर क्रमशः -6.4%, -4.2% और -2.7% रही है।

उत्तराखंड के जंगलों को नष्ट करने वाले क्या कारण हैं? इसके बारे में जब हम पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि उत्तराखंड का कुल भौगौलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किमी है। इसमें से 37,999 वर्ग किमी अकेले वन क्षेत्र में आता है। उत्तराखंड अपने समृद्ध वनस्पति एवं वन्य जीव के लिए जाना जाता है, जिसमें पेड़ों की 112 प्रजातियां, 73 झाड़ियां और 93 जड़ी-बूटियां हैं। लेकिन यह समूचा वन क्षेत्र अलग-अलग प्राधिकरण के अधिकार क्षेत्र में है। उत्तराखंड वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में 25,863 वर्ग किमी का वन क्षेत्र आता है। इसी प्रकार राजस्व विभाग के अधिकार क्षेत्र में 4,768 वर्ग किमी और ग्राम पंचायतों के अधीन 7,168 वर्ग किमी जबकि शेष निजी हाथों में है।

उत्तराखंड में वन क्षेत्र में तेजी से कमी के पीछे प्रमुखतया दो कारण हैं: पहला, हाल के वर्षों में वनों में लगने वाली आग में बेतहाशा वृद्धि है। पिछले 6 महीनों के दौरान जंगलों में आग लगने की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जिसकी संख्या 900 पार कर गई है। इसकी वजह से तकरीबन 1100 हेक्टेयर से अधिक का जंगल पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। इनमें से 351 मामले मानव जनित अग्निकांड की वजह से घटित हुए हैं। इनमें 59 लोगों की पहचान कर उन्हें हिरासत में लिया जा चुका है, जबकि 290 अज्ञात लोगों के खिलाफ पुलिस की जांच चल रही है।

1 नवंबर 2023 से अब तक 690 हेक्टेयर वन प्रभावित हुए हैं, जिसके चलते राज्य को 14 लाख रूपये का आर्थिक नुकसान हुआ है। इसमें से अधिकांश प्रभावित वन नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, पौड़ी गढ़वाल और उत्तरकाशी जिले में हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश भर में यह उत्तराखंड ही है, जहां से सबसे अधिक संख्या में जंगलों में आग लगने की घटनाएं प्रकाश में आई हैं। सिर्फ 28 अप्रैल, 2024 को एक सप्ताह के भीतर ही देश के वनों में आग लगने की बड़ी घटनाओं में उत्तराखंड से 325 घटनाएं रिपोर्ट की गई थीं, इसके बाद ओडिशा से 196, छत्तीसगढ़ से 145, मध्य प्रदेश से 105 और झारखंड से 79 घटनाएं प्रकाश में आई हैं।

इतना ही नहीं, फायर अलर्ट के मामले में भी उत्तराखंड का स्थान देश में अव्वल है। यहां से सर्वाधिक 4,543 फायर अलर्ट प्राप्त हुए, इसके बाद ओडिशा से 2,941, छत्तीसगढ़ से 2,527, झारखंड 1,420 और मध्य प्रदेश से 105 घटनाओं की रिपोर्ट हुई। उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी के पीछे की वजहों की तलाश करने पर हम पाते हैं कि राज्य में करीब 3.94 लाख हेक्टेयर भूमि चीड़ के पेड़ों से आच्छादित हैं, जो बेहद ज्वलनशील होते हैं। चीड़ के पेड़ों को मुख्यतया वन विभाग के द्वारा पूरे प्रदेश भर में रोपा गया है, जो तीन दशक पूर्व तक कुछ विशेष क्षेत्रों तक ही सीमित थे।

लेकिन वनों एवं मानव-रहित गैर-कृषि भूमि पर पिछले तीन दशकों के दौरान वन विभाग ने अभियान चलाकर चीड़ वृक्षारोपण को अंजाम दिया, ताकि लीसे के माध्यम से अतिरिक्त राजस्व की प्राप्ति की जा सके। लेकिन चीड़ के वृक्ष जहां एक ओर जमीन की नमी को सोखने का काम करते हैं, वहीं दूसरी तरफ इससे टूटकर गिरने वाले पिरूल पत्ते काफी ज्वलनशील होते हैं। उत्तराखंड में आग लगने की घटनाओं के पीछे अधिकांश मामलों में चीड़ के जंगलों में लगी आग प्रमुखता से देखने को मिल रही है।

इसके साथ ही हाल के वर्षों में पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षा की कमी को आग लगने की बड़ी वजह बताया जा रहा है। ऐसा देखने को मिल रहा है कि मानसून की दस्तक से पहले भी उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में मई, जून के महीनों में भी बारिश हो जाया करती थी, लेकिन इधर सूखे दिनों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। जाड़े के मौसम में जो बरसात हुआ करती थी, वह अभी अब नगण्य हो चुकी है, जबकि बर्फबारी भी जो दिसंबर और जनवरी माह में हुआ करती थी, अब बेहद सीमित क्षेत्रों में जनवरी माह के अंत में देखने को मिली है, जो बेहद असामान्य घटना है। इसके साथ ही उत्तर भारत में भारी हीट वेव भी हिमालयी क्षेत्र को प्रभावित कर रही है। 2024 में मैदानी क्षेत्रों में तापमान वृद्धि की तुलना में उत्तराखंड के विभिन्न जिलों ने इसे सर्वाधिक महसूस किया है।

जंगलों में आग के पीछे प्रशासन ने मानव जनित घटनाओं को 95% जिम्मेदार माना जा रहा है, जिसमें वन भूमि को कृषि उपयोग के लिए जलाने से लेकर वन क्षेत्रों के आसपास धुम्रपान के बाद जली हुई सिगरेट/माचिस को छोड़ देना, वन क्षेत्र में बोन-फायर का आयोजन या सोशल मीडिया में कंटेंट को फ़ैलाने के लिए शरारतपूर्ण कार्रवाई जैसी वजहें पाई गई हैं।

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने जंगलों में आग लगने की घटनाओं को रोकने के लिए निम्नलिखित सुझाव सूचीबद्ध किये हैं: आग लगने की घटनाओं को शुरू में ही चिंहित करने के लिए वाचटावर्स का निर्माण, फायर वाचर्स की नियुक्ति, स्थानीय समुदायों को शामिल करना और फायर लाइन्स का निर्माण एवं रखरखाव का काम।

उत्तराखंड के वनों में आई भारी कमी के पीछे दूसरी सबसे बड़ी वजह हाल के वर्षों में इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण में अभूतपूर्व तेजी को दिया जा रहा है। वन विभाग ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि व्यावसायिक गतिविधि के चलते पिछले 20 वर्षों के दौरान उत्तराखंड में 50,000 हेक्टेयर वन भूमि का नुकसान हो चुका है। केंद्र सरकार के द्वारा राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण कार्य में बड़ी संख्या में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, ब्लास्टिंग ने भारी नुकसान पहुंचाया है। इसके अलावा खनन, हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट्स, बिजली के ट्रांसमिशन लाइन का जाल, जल वितरण की पाइपलाइन बिछाने और सिंचाई का जाल बिछाने जैसे कार्यों ने वनों के समीकरण को बदलकर रख दिया है।

अकेले खनन गतिविधियों की वजह से राज्य 8,760 हेक्टेयर वन संपदा को खो चुका है। इसके साथ ही सड़क निर्माण के कारण 7,539 हेक्टेयर,बिजली वितरण लाइन्स के चलते 2,332 हेक्टेयर और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के निर्माण में 2,295 हेक्टेयर वन भूमि की क्षति हो चुकी है। इसके अलावा, 20,988 हेक्टेयर वन भूमि कुछ अन्य कार्यों, जैसे कि डिफेंस से संबंधित गतिविधि, रेलवे लाइन, ऑप्टिकल केबल बिछाने, निर्माण कार्य एवं पुनर्वास जैसे कार्यों को होम हो चुका है।

सर्वेक्षण में शामिल अधिकारी के अनुसार, “सरकार की ओर से भूस्खल एवं भूमि के कटाव को रोकने के लिए करोड़ों रूपये खर्च किये जा रहे हैं, लेकिन हम इन आपदाओं की मूल वजह के बारे में विचार नहीं कर रहे हैं। अगर हम वनों को किसी प्रकार से संरक्षित कर सकें तो इसे काफी हद तक रोका जा सकता है।” लेकिन इसके साथ ही प्रशासन यह भी मानता है कि जिस रफ्तार से इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण का कार्य चल रहा है, उसमें यह सब हो पाना संभव नहीं है।

मौजूदा समय में 1,271 सड़क निर्माण परियोजनाएं हैं, जिनके लिए वनों का अधिग्रहण प्रस्ताव लंबित है। इनमें से 268 परियोजनाओं के लिए वन भूमि अधिग्रहण की मंजूरी हासिल की जा चुकी है। सरकार पहले ही 571 परियोजनाओं को मंजूरी दे चुकी है, लेकिन वन विभाग से अभी मंजूरी मिलनी शेष है। वर्ष 2020-21 में 1,138 हेक्टेयर, वर्ष 2021-22 में 524 हेक्टेयर, वर्ष 2022-23 में 961 हेक्टेयर और 2024 में अभी तक 17 हेक्टेयर वन क्षेत्र को विभिन्न परियोजनाओं के लिए दिया जा चुका है।

उत्तराखंड जैसे हिमालयी क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर वनों के कटान, पहाड़ों को चीरकर राजमार्गों और रेल लाइन का निर्माण कार्य, सुरंगों के निर्माण के लिए ब्लास्टिंग और सैकड़ों गुना डीजल, पेट्रोल और प्लास्टिक कचरे के साथ हजारों टन मलबे का हिमालय से निकलने वाली नदियों में निस्तारण एक भारी प्राकृतिक आपदा को जन्म दे रहा है। हाल के वर्षों में बदल फटने, बेहद कम बरसात, जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियर के पिघलने से लेकर बड़ी संख्या में भू-स्खलन की घटनाएं देखने को मिल रही हैं। हजारों करोड़ रूपये खर्च कर बने आल वेदर रोड या चार धाम परियोजना को लेकर भी अब आम लोग सवाल करने लगे हैं कि यह विकास है अथवा हिमालय का विनाश?

यह उत्तराखंड के इतिहास में पहली बार देखने को मिला जब हल्द्वानी, हरिद्वार और देहरादून जैसे तराई और दून क्षेत्र, जिन्हें हिमालय की तलहटी समझा जाता है, के तापमान में 40 से लेकर 42 डिग्री सेल्सियस तक रिकॉर्ड किया गया। पिछले दो दशकों के दौरान, इन क्षेत्रों का शहरीकरण, आसपास के वनों की अंधाधुंध कटाई, खनन और बड़े पैमाने पर भवन निर्माण से लेकर तालकोर की सड़कें ही नहीं हाईवे और एक्सप्रेसवे निर्माण कार्य पूरे जोरशोर तरीके से जारी हैं, जो इन क्षेत्रों को भी उत्तर भारत के बाकी शहरों के तापमान की जद में ला चुके हैं।

इसके दूरिगामी परिणाम बेहद भयावह हो सकते हैं, जिसमें समूचे पर्यावरणीय संतुलन के ध्वस्त होने की आशंका है, जिसके चलते बड़ी संख्या में जनधन और संपत्ति के नुकसान का अंदेशा बढ़ता जा रहा है। पर्यावरणीय क्षति से प्रभावित लाखों लोगों के शरणार्थी के तौर पर पलायन और विस्थापन की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर रूप लेती जा रही है, जिसे चमोली गढ़वाल के जोशीमठ कस्बे में पिछले वर्ष देश ही नहीं दुनिया देख चुकी है।

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