कृष्ण प्रताप सिंह
शुक्र है कि देर से ही सही, जम्मू कश्मीर में नागरिकों की लक्षित हत्याओं को लेकर केन्द्र सरकार की नींद टूटी और गृहमंत्री अमित शाह ने हालात की उच्चस्तरीय समीक्षा के बाद केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल व नेशनल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी के चीफों को घाटी भेजा। निस्संदेह, पहले की तरह आतंकवादियों के खिलाफ अभियान और तेज करने के उद्देश्य से। लेकिन इससे कोई नई उम्मीद नहीं बंधती, क्योंकि दो साल पहले संविधान का अनुच्छेद 370 हटाया गया तो ऐसे अभियानों के बल पर ही देशवासियों को सब्जबाग दिखाया गया था कि अब वहां न सिर्फ अमन-चैन लौट सकेगा, बल्कि भारी निवेश से विकास कार्य तेज होंगे, जिनसे खुशहाली आयेगी, बेरोजगारी का खात्मा होगा, दशकों से विस्थापित कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौट सकेंगे और देश का कोई भी नागरिक वहां भूमि खरीद सकेगा। इतना ही नहीं, यह कहने में भी संकोच नहीं किया गया कि ‘वहां की खूबसरत युवतियों को ब्याह कर ला सकेगा।’
लेकिन अब एक के बाद एक नागरिकों की हत्याओं के वक्त हम यह देखने को अभिशप्त हैं कि वहां न अनुच्छेद 370 हटाने से शांति बहाल हुई है और न आतंकवादियों के सफाये के बड़बोले अभियानों से ही। ऐसे में कश्मीरी पंडितों की वापसी तो वहां क्या होती, 1990 के उनके विस्थापन के दौर की वापसी होती दिखाई पड़ने लगी है और जिन नागरिकों ने उस दौर में भी घाटी में बने रहने का हौसला दिखाया था, उन्हें भी दर-ब-दर होना पड़ रहा है।
इस बार आतंकियों के निशाने पर बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों से वहां गये प्रवासी मजदूर हैं, जिनमें से अनेक दहशत के मारे ट्रेनों व बसों से किसी तरह घर वापस लौटने की कोशिश कर रहे हैं, तो कई को आतंकियों की गोलियों से ज्यादा भूख का डर सता रहा है। इसका कि लौटकर अपने मुलुक जायेंगे तो भला खायेंगे क्या?
जानकार बताते हैं जैसा कि मजदूरों के साथ आमतौर पर होता ही है, इन मजदूरों में बहुतों की जेब खाली है, किसी को मालिक ने उनकी मजदूरी या तनख्वाह का भुगतान नहीं किया है, किसी की जमा पूंजी खत्म हो चुकी है, किसी के बच्चे भूख से बिलख रहे हैं, तो कोई अपने भविष्य को लेकर डरा हुआ है। यानी उनके समक्ष इधर कुआं, उधर खाईं वाली हालत है। अपने घरों में रहें तो रोजी को और काम के लिए निकलें तो जान का खतरा है।
सवाल पूछें कि यह खतरा क्यों कर उपस्थित हुआ है, तो जवाब कश्मीर सम्बन्धी उस सरकारी नीति की अपंगता की ओर ही ले जाता है, 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद से ही जो वहां की समस्या को साम्प्रदायिक नजरिये से देखकर और भारतीय जनता पार्टी का अधूरा साम्प्रदायिक एजेंडा पूरा करने के लिए बनाई व अमल में लाई जा रही है। इसके पीछे इस सरकार का यह दृष्टिकोण भी किसी से छिपा नहीं है कि उसकी इस नीति से कश्मीर समस्या का समाधान हो या नहीं, उससे शेष देश में साम्प्रदायिकता की जो बयार बहेगी, उससे उसकी झोली वोटों से भर जाया करेगी। क्या आश्चर्य कि सत्ता लोभ बेकाबू हो गया तो उसने वहां महबूबा मुफ्ती की उस पीडीपी से मिलकर सरकार बना ली, जो वहां के विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के लिए आतंकवादियों की कृतज्ञ थी। फिर अपनी जमीन थोड़ी सी मजबूत कर उसे गिरा भी दिया। हां, पिछले दिनों आतंकवादियों ने वहां नागरिकों की लक्षित हत्याएं शुरू कीं तो भी उन्हें नागरिकों के बजाय हिन्दुओं की हत्याएं बनाना और उनकी आड़ में देश भर में साम्प्रदायिक माहौल बनाना सबसे पहले इस सरकार के समर्थकों ने ही शुरू किया।
ऐसे में साफ कहें तो आगे कश्मीर में आतंकवाद का खात्मा और अमन चैन की बहाली बहुत हद तक इस पर निर्भर करेगी कि केन्द्र सरकार उसके लिए किये जाने वाले प्रयासों में अपने साम्प्रदायिक एजेंडे से कितना परहेज कर पाती है?
लेकिन अभी तो हालत यह है कि न वह अपने साम्प्रदायिक एजेंडे से परहेज कर पा रही है और न काहिली से। निस्संदेह यह उसकी काहिली की ही मिसाल है कि उसने अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ने को लेकर बार-बार जताये जा रहे अंदेशों को गम्भीरता से नहीं लिया और गफलत में रही कि नागरिकों और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों को विश्वास में लिये बिना उन्हें लगातार संगीनों के साये में रखकर आतंकवादियों से निपट लेगी।
यह गफलत ऐसी थी कि लश्कर-ए-तैयबा की शाखा दि रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने नागरिकों की लक्षित हत्याओं से ठीक एक महीना पहले ही घाटी में रह रहे बाहरी लोगों को लक्षित एवं बहिष्कृत करने की रणनीति का एलान किया था-कोई चोरी छुपे नहीं बल्कि मैसेजिंग ऐप टेलीग्राम और वीपीएन-संरक्षित ब्लॉग ‘कश्मीर फाइट’के माध्यम से दस्तावेज जारी करके, लेकिन सरकार को या तो इसकी जानकारी नहीं थी या वह जानबूझ कर नादान बनी रही थी, जब तक कि टीआरएफ ने अपनी रणनीति पर अमल नहीं शुरू कर दिया।
तब टीआरएफ ने न केवल उन नागरिकों को लक्षित करने की धमकी दी थी जो गैरस्थानीय लोगों को उनके व्यापार में मदद करते हैं, या उन्हें रहने के लिए जगह देते हैं, बल्कि उन प्रशासनिक अधिकारियों को भी निशाना बनाने को भी धमकाया था, जो गैरस्थानीय लोगों को अधिवास प्रमाण पत्र प्राप्त करने में मदद करते हैं। राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने अब जाकर इस दस्तावेज़ को संज्ञान में लिया है और उन हैंडल का पता लगाने की कोशिश कर रही है जिनके माध्यम से इसे साझा किया गया था।
लेकिन यह जाने के लिए तो कतई किसी जांच की जरूरत नहीं कि इसमें लिखा गया था कि ‘जिन गैरस्थानीय लोगों को नया अधिवास प्रमाण पत्र प्रदान किया गया है, उन्हें जम्मू-कश्मीर का दुश्मन माना जाना चाहिए और वह अपने जीवन के लिए खुद जिम्मेदार होंगे।’यह भी कि ‘जो कोई भी किसी गैर-स्थानीय व्यक्ति को जमीन आवंटित करने में शामिल पाया जायेगा, उसे कश्मीर का दुश्मन माना जाएगा. वे अधिकारी भी, चाहे वे कोई भी हों, चाहे वे दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं या फाइलों को आगे बढ़ाते हैं, वे भी इस दुश्मनी वाली सूची की जद में आएंगे।’
सरकार इस दस्तावेज का समय रहते पता लगाकर या उसे संज्ञान में लेकर अपनी मशीनरी को सक्षम व सचेत बना देती तो न केवल हालात इतने जटिल होने से बच जाते बल्कि असमय जानें गवाने को मजबूर हुए कई निर्दोषों की प्राणरक्षा भी हो जाती। लेकिन वह संविधान का अनुच्छेद-370 हटाने और जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में विभाजित कर देने के साथ पूरी तरह आश्वस्त हो गई थी कि इससे वहां फैला आतंकवाद उड़न छू हो जायेगा।
हालांकि नोटबंदी के बाद उसके द्वारा किया गया ऐसा ही दावा गलत सिद्ध हुआ था और दूध के जले के छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने की स्थिति थी, जो अभी भी बनी हुई है। इसलिए बेहतर होगा कि वह अपनी अब तक की कश्मीर नीति की ईमानदारी से समीक्षा करे और वहां की जनता को विश्वास में लेकर ऐसे कदम उठाये, जिनसे क्या स्थानीय और क्या बाहरी सभी लोगों में सुरक्षा की भावना पैदा हो। अगर वहां के पूर्व उपराज्यपाल सत्यपाल मलिक का यह दावा सही है कि उनके कार्यकाल में राजधानी श्रीनगर की 50-100 किमी की सीमा में कोई आतंकी प्रवेश नहीं कर पाता था और अब सारी गड़बड़ बदले हुए इंतजामों के कारण हुई है, तो उनके वक्त के इंतजामों की पुनरावृत्ति पर विचार क्यों नहीं किया जा सकता?
बहरहाल, जैसे भी हो, जम्मू-कश्मीर में शांति और साथ ही वहां के लोगों में विश्वास की बहाली बहुत जरूरी है। यह जरूरत पूरी करने के लिए प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक बुलाकर विचार-विमर्श करना भी उपयोगी हो सकता है। लेकिन यह कहने से कतई काम नहीं चलने वाला कि आतंकवादी हताशा में खूंरेजी पर आमादा हैं। सुनिश्चित करना होगा कि निर्दोष नागरिकों को उनकी हताशा का मूल्य अपनी जान से न चुकाना पड़े।
(कृष्ण प्रताप सिंह जनमोर्चा के संपादक हैं। और आजकल फैजाबाद में रहते हैं।)