अनिल सिन्हा
आखिरकार प्रशांत किशोर को 2024 के चुनावों में कांग्रेस को उबारने की जिम्मेदारी सौंप दी जाएगी। कई चुनावों में उन्होंने अपने हुनर का कमाल दिखाया है और उन लोगों ने राहत की सांस ली होगी जो नरेंद्र मोदी को सत्ता से बाहर करने में कांग्रेस को सफल देखना चाहते हैं। यह जगजाहिर है कि देश में एक बड़ा तबका है जो कांग्रेस को भाजपा को हराते देखना चाहता है। पीके यह कर पाएंगे या नहीं यह समय ही बताएगा, लेकिन यह सवाल तो उठेगा कि क्या चुनावी चुनौती भर से हिंदुत्ववादियों के फासीवादी घेरे से देश को मुक्त कराने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को बचाने में कामयाबी मिल जाएगी? क्या कांग्रेस हिंदुत्व और कारपोरेट की दबंगई से लड़ने से बचने का रास्ता ढूंढ रही है या फासीवाद के खिलाफ लड़ाई को महज चुनावों तक सीमित रखना चाहती है? क्या कांग्रेस को विचारधारा के स्तर पर हिंदुत्व और कॉरपोरेट से लड़ने की रणनीति नहीं बनानी चाहिए?
इसमें कोई शक नहीं है कि पीके उस नए वर्ग की नब्ज पहचानते हैं जो सोशल मीडिया के सहारे संवाद करता है और वह आम लोगों के मत को प्रभावित करने वाले नए तरीकों के इस्तेमाल में माहिर हैं। खुले बाजार की आर्थिक नीतियों के सहारे खड़ा मीडिया ने विचारधाराओं को सामाजिक बहस से गायब कर दिया है जबकि कम्युनिज्म के सोवियत मॉडल के फेल हो जाने और चीन के दुनिया के पूंजीवाद से हाथ मिलाने के बाद विचारधारा की बहस ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। क्या आदमी को पैसा कमाने की मशीन में बदल दिया जाए और जिंदगी का अर्थ सिर्फ मौजमस्ती रहे? क्या यह मौजमस्ती हाशिए पर खड़ी दुनिया की उस विशाल आबादी को भी मिल पाएगी जो अकाल तथा भुखमरी की शिकार है? क्या लोगों को मानवता के उन महान सरोकारों से अलग कर दिया जाए जो पूरी दुनिया को शोषण और अत्याचारों से मुक्त देखना चाहती है?
महात्मा गांधी, भगत सिंह, बाबा साहेब आंबेडकर समेत अनेक महान शख्सियतों के नेतृत्व में लड़े गए आजादी के आंदोलन ने भारत ही नहीं मानवता की मुक्ति का सपना देखा था। हिंदुत्व उस सपने के विरोध में पनपी विचारधारा है जो लोकतंत्र, सेकुलरिज्म और मानवतावाद में यकीन नहीं करती है। हमने पिछले आठ सालों में इसके कुरूप चेहरे को देखा है। हमने देखा है कि इसने मॉब लिंचिंग जैसे जघन्य अपराधों को जन्म दिया है और अब वह हिजाब, अजान जैसे मुद्दों के जरिए देश में दंगे फैलाना चाहती है। खरगौन से दिल्ली तक हम देख रहे हैं कि कठिन मौकों पर कांग्रेस समेत तमाम विरोधी पार्टियां हाथ पर हाथ धरे बैठी रह जाती हैं। इसमें वामपंथी पार्टियां, छोटे-छोटे प्रगतिशील संगठन और बुद्धिजीवी ही कुछ आवाज उठाते हैं। सोशल मीडिया पर भी वे ही नफरती दल से मोर्चा लेते हैं। सवाल उठता है कि विपक्षी पार्टियां खासकर कांग्रेस ऐसे मामलों में क्यों निष्क्रिय नजर आती है? क्या यह विचारधारा का वह संकट नहीं दिखाता है जिसका शिकार कांग्रेस लंबे समय से है?
अगर हम पीके को कांग्रेस की कमान सौंपने की रणनीति को गौर से देखें तो इससे यही अंदाजा होता है कि सोनिया गांधी उन कारपोरेटपरस्त नीतियों से अलग नहीं होना चाहती हैं जो मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी और पी चिदंबरम ने शुरू की थी और जिसके समर्थन में वह समूह पूरी ताकत से खड़ा था जो आज जी-23 के नाम से जाना जाता है। राहुल गांधी हिंदुत्व और कारपोरेट के विरोध में लगातार खड़े होने की कोशिश करते रहे हैं, लेकिन इसके लिए जरूरी मेहनत करने के लिए वह तैयार नहीं हैं और अंत में अपने दरबारी सलाहकारों के कंधों पर ही सवार हो जाते हैं।
कांग्रेस के देश भर में फैले संगठन को एक स्पष्ट विचारधारा से लैस करने का काम वह नहीं करते हैं। यही वजह है कि कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता भाजपा में जाने में कोई दिक्कत नहीं महसूस करते हैं क्योंकि उनकी भाषा और राजनीतिक शैली में विचारधारा से गहरा लगाव नहीं रहता है। वे कामचलाऊ विचारधारा से अपनी राजनीति चलाते हैं जिसे बदलने में परेशानी नहीं होती है। वैसे वामपंथी पार्टियों को छोड़ कर सभी विरोधी पार्टियां इस बीमारी का शिकार हैं। आम आदमी पार्टी जैसी पार्टी तो समय पड़ने पर बतौर पार्टी ही हिंदुत्व वाली लाइन ले लेती है।
सवाल उठता है कि क्या पीके कांग्रेस को इस बीमारी से निजात दिला सकते हैं? इस सवाल का उत्तर नकारात्मक है। पीके की वैसी जिम्मेदारी है भी नहीं और न ही वह भारतीय लोकतंत्र को विचारधाराओं की राजनीति में ले जाने का कोई इरादा रखते हैं। वह भारतीय लोकतंत्र को विचारधारा से मुक्त करने का ही काम करते रहे हैं। यह चुनाव-संचालन की उनकी यात्रा में साफ दिखाई देता है। उन्होंने नरेंद्र मोदी जैसे कट्टर हिंदुत्व के समर्थक को देश के स्तर पर स्थापित करने का काम किया और उससे अलग होने के बाद उन्होंने अलग-अलग विचारधाराओं वाली पार्टियों के साथ काम किया है ।
इसमें स्टालिन की डीएमके जैसी पार्टी तो कई स्तरों पर वामपंथी है। दूसरी ओर ममता बनर्जी हैं जो तात्कालिकता की राजनीति करती हैं और वक्त के हिसाब से लेफ्ट या राइट हो जाती हैं। पीके ने नीतीश कुमार को 2015 में सत्ताविरोधी लहर से बचा कर सत्ता में लाने में मदद की और उन्होंने जल्द ही पाला बदल लिया। यही काम उनके एक और नेता कैप्टन अमरिंदर सिह ने किया। कैप्टन कांग्रेस में रह कर उसे समाप्त करते रहे और अंत में भाजपा से जा मिले।
आखिर पीके की राजनीतिक विचारधारा क्या है? इस सवाल का उत्तर उतना कठिन भी नहीं है जितना लगता है। एक तो वह संसदीय लोकतंत्र को अमेरिका की तरह व्यक्ति केंद्रित बनाना चाहते हैं और दूसरी ओर वह कारपोरेट परस्त नीतियों को चलने देने के पक्ष में लगते हैं। उनकी चुनावी-यात्रा पर नजर डालने से यही लगता है कि उन्होंने पार्टियों नहीं बल्कि व्यक्तियों को जीत दिलाई। इसी तरह उन्होंने कारपोरेटपरस्त नीतियों के विरोध के बदले बेहतर गवर्नेंस और लोककल्याणकारी कार्यक्रमों को चुनाव अभियान को क्रेंद्रीय मुद्दा बनाया है। निश्चित तौर पर वह कांग्रेस में आकर यही सब करेंगे। जाहिर है कि फासीवाद के खिलाफ बड़ी लड़ाई में कांग्रेस की कोई खास भूमिका नहीं बन पाएगी।
पीके के बेहतर चुनाव प्रबंधन के सहारे बेरोजगारी, महंगाई और आम जन के जीवन की असुरक्षा के कारण अलोकप्रिय हुए मोदी को हराने में कांग्रेस कामयाब हो सकती है, लेकिन फासीवाद से देश को मुक्त करने का काम वह नहीं कर पाएगी। महज सत्ता परिवर्तन से यह काम नहीं हो सकता है जब एक संगठित सांप्रदायिक संगठन अपनी ताकत लगातार बढ़ाता जा रहा है और शिक्षा तथा ज्ञान के केंद्रों पर अपना कब्जा जमाता जा रहा है। वैसे पीके भी मानते हैं कि भाजपा सालों तक भारतीय राजनीति में प्रमुख ताकत बनी रहेगी। ऐसे में कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक पार्टियों को फासीवाद से स्थाई मुक्ति की रणनीति बनानी चाहिए। फिलहाल ऐसा होता दिखाई नहीं देता है।
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)