कृष्ण प्रताप सिंह
वर्ष 2009 के अंत में आई फिल्म निर्देशक राजकुमार हिरानी की बहुचर्चित फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में एक दृश्य अपनी असफलता से निराश एक छात्र द्वारा की गई आत्महत्या का भी था. उसके बाद के एक दृश्य में अभिनेता आमिर खान के किरदार ने ‘सुसाइड नहीं, मर्डर’ कहकर सवाल उठाया था कि आत्महत्या करने वाले छात्र के गले पर फंदे का जो प्रेशर पड़ा, वह तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में नजर आ जाएगा, लेकिन उसके दिमाग पर जो प्रेशर पड़ा, उसका क्या?
गत सप्ताह युद्धग्रस्त यूक्रेन के दूसरे सबसे बड़े शहर खारकीव में मेडिकल अंतिम वर्ष के इक्कीस वर्षीय भारतीय छात्र नवीन शेखरप्पा, जो कर्नाटक से अध्ययनार्थ वहां गए थे, के राशन लेते वक्त रूसी गोलाबारी की चपेट में आ जाने से दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से मारे जाने के सिलसिले में उक्त सवाल को यूं पूछ सकते हैं कि रूसी गोलों ने नवीन को जो घाव दिए, वे तो प्रत्यक्ष हैं, लेकिन उसके अपने देश की सरकार की उन लापरवाहियों का क्या, जिन्होंने नाना अंदेशों के बावजूद उसे वहां रूसी गोलों का शिकार होने के लिए छोड़े रखा?
जिस नरेंद्र मोदी सरकार ने अब अचानक कुंभकर्णी नींद से जागकर वहां फंसे भारतीय छात्रों को इधर-उधर के पड़ोसी देशों के रास्ते निकालने के लिए ‘ऑपरेशन गंगा’ चलाकर उसमें वायुसेना तक को लगा दिया है, और जिसको प्रधानमंत्री देश के सामर्थ्य का प्रतीक बता रहे हैं, वह परिस्थितियों का यथासमय सटीक आकलन करके युद्ध से थोड़ा पहले सक्रिय हो जाती, तो क्या रूसी गोलाबारी असमय नवीन की जान ले पाते?
अगर नहीं तो क्या उसकी मौत के लिए उक्त गोलों से ज्यादा यह सरकार ही जिम्मेदार नहीं है और क्या इसके लिए उसे कठघरे में नहीं खड़ा किया जाना चाहिए? खासकर जब वह बीसियों हजार फंसे छात्रों में से एक-दो हजार को ‘सुरक्षित’ निकालकर अपने मुंह मियां मिट्ठू बन रही है और उनके मुंह से अपना प्रशस्तिवाचन कराकर इवेंट की तरह पेश कर रही है.
हालांकि अभी भी उसके पास यह आश्वासन नहीं है कि नवीन की मौत वहां किसी भारतीय छात्र की आखिरी मौत भी सिद्ध होगी. नवीन की मौत के बाद वहां एक और छात्र घायल हो गया है, जबकि एक अन्य भारतीय छात्र की बीमारी से मृत्यु हो गई है.
गौरतलब है कि अभी तीन-चार दिन पहले ही एक प्रत्यक्षदर्शी भारतीय छात्रा ने वीडियो जारी कर बताया था कि रूसी सैनिकों ने उसकी आंखों के आगे से कुछ भारतीय छात्रों को अगवाकर लिया है, जिनमें दो छात्राएं भी हैं, जबकि कई अन्य छात्रों को शिकायत है कि भारतीय दूतावास द्वारा जारी किए गए हेल्पलाइन नंबर काम ही नहीं कर रहे. उ
न पर फोन करने पर उन्हें किसी तरह की मदद की कौन कहे, कोई जवाब तक नहीं मिल रहा, जबकि न उनके पास खाने को कुछ बचा है और न पैसे. बाजारों में खाद्य वस्तुओं की भीषण कमी है और एटीएम हैं कि उनमें कैश ही नहीं रह गया है.
मंगलवार को राजधानी कीव पर भीषण रूसी हमले के अंदेशे में भारतीय दूतावास ने अचानक सारे भारतीय छात्रों को, जैसे भी बने, तुरंत वहां से निकल जाने की एडवाइजरी जारी कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली, तो इन छात्रों की हालत घर के न घाट के जैसी हो गई थी. न उन्हें ट्रेनों पर चढ़ने दिया जा रहा था और सड़कों पर आवागमन के दूसरे साधन ही उपलब्ध थे.
सोचिए जरा, यह हालत तब है, जब हम यह भी नहीं कह सकते कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार अभी भी स्थिति की गंभीरता से अवगत नहीं हैं.
जहां तक प्रधानमंत्री की बात है, गत 22 फरवरी को उत्तर प्रदेश के बहराइच में अपनी चुनावी जनसभा में उन्होंने रूस-यूक्रेन तनाव के कारण दुनिया भर में मची उथल-पुथल का जिक्र करते हुए ‘मजबूत भारत’ के लिए इस तरह वोट मांगे थे, जैसे उत्तर प्रदेश में विधानसभा के नहीं लोकसभा के चुनाव हो रहे हों.
उन्होंने कहा था कि दुनिया भर में मानवता की रक्षा के लिए देश का, यानी उसकी सरकार का, मजबूत होना जरूरी है. लेकिन अपनी जिस सरकार को समर्थ व मजबूत मानकर वे यह बात कर रहे थे, वह मानवता की तो क्या, अपने छात्रों की रक्षा भी नहीं कर पा रही.
युद्धरत रूस और यूक्रेन दोनों उसके पारंपरिक मित्र हैं, लेकिन उनमें से कोई उसकी इतनी-सी अपील भी बात मानने को तैयार नहीं है कि कुछ घंटों के लिए युद्ध रोककर उसे सेफपैसेज दे दिया जाए, ताकि वह अपने छात्रों को कीव व खारकीव आदि से निकालकर उन पर मंडराती से छुटकारा दिला सके.
रूस तो यहां तक आरोप लगा रहा है कि भारत के रवैये से नाराज यूक्रेन के सैनिकों ने वहां अनेक भारतीय छात्रों को बंधक बनाकर ढाल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. भारत द्वरा इसके खंडन के बावजूद यह सवाल उत्तर की मांग करता है कि क्या मोदी के राज में यही भारत का वह इकबाल है, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि पिछले सात-आठ सालों में उसे बहुत बुलंद कर दिया गया है?
अगर हां, तो उसके द्वारा यूक्रेन के पड़ोसी देशों में भेजे गए चार केंद्रीय मंत्री फंसे हुए भारतीय छात्रों की कैसे और कितनी मदद कर पाएंगे? इस सिलसिले में दो सवाल पूछे जाने जरूरी है. पहला यह कि क्या उन देशों में स्थित भारतीय दूतावास इतने भी सक्षम नहीं हैं कि कोई संकट आ खड़ा हो तो भारतीयों की मदद कर सकें? फिर राजनयिक संबंधों को निभाने की खातिर उन पर करोड़ों रुपये क्यों खर्च किए जाते हैं?
दूसरा यह कि अगर ऐसा नहीं है तो क्या केंद्रीय मंत्रियों को वहां सिर्फ इसलिए भेजा गया है, ताकि देशवासियों में यह प्रचार करने में सुभीता हो कि सरकार अपने फंसे हुए नागरिकों के लिए कितनी फिक्रमंद है?
ऐसा है तो क्या वे मंत्री यूक्रेन में फंसे छात्रों की फंसने को भी उसी तरह इवेंट बनाएंगे जैसे उनमें से कुछ की वापसी और प्रधानमंत्री द्वारा नवीन के परिजनों को फोन करके संवेदना जताने को बनाया जा रहा है? सच तो यह है कि नवीन के परिजनों के पास अब आंसुओं, अफसोस और बेचारगी के अलावा कुछ बचा ही नहीं है और वे अपनी नाराजगी व्यक्त करने में भी असमर्थ हैं. यह कहने में भी कि उनका बेटा रूसी गोलों का ही नहीं, अपने देश की संवेदनहीन व गैरजिम्मेदार व्यवस्था का भी शिकार हुआ है.
यहां यह भी गौरतलब है कि मोदी सरकार प्रायः कहती रहती है कि पिछले सत्तर साल में देश में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ. लेकिन इस सिलसिले में वह अगस्त, 90 के बाद के देश और दुनिया के इतिहास के उन पन्नों को पलटकर भी दिक्कत महसूस करेगी, जिनमें दर्ज है कि खाड़ी युद्ध शुरू हुआ तो देश की तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने बिना कोई आर्थिक बोझ डाले वहां से एक लाख से अधिक भारतीयों की सुरक्षित स्वदेश वापसी करवाई थी और अपने राजनीतिक हितों के लिए उसका रंच भी इस्तेमाल नहीं किया था.
निस्संदेह ‘कमजोर’ होने के बावजूद वह ‘मजबूत’ मोदी सरकार से बेहतर समझती थी कि विदेश में कहीं भी फंसे भारतीयों को स्वदेश वापस लाना उसकी जिम्मेदारी है, एहसान या उपलब्धि नहीं और इस जिम्मेदारी को निभाने में कोई भी देरी या तसावली पूरी तरह अक्षम्य है.
इसके विपरीत मोदी सरकार ने कितनी लापरवाही बरती है, इसे इस तथ्य के आईने में समझा जा सकता है कि कई दूसरे देश यूक्रेन से अपने नागरिकों को कब का निकाल चुके और भारतीय नागरिक, जिनमें ज्यादातर छात्र हैं, युद्ध के एक सप्ताह बाद भी राम भरोसे हैं.
अब जाकर विदेश सचिव की ओर से रूस और यूक्रेन के राजदूतों को समन जारी कर दोनों देशों से मांग की गई है कि वे यूक्रेन से भारतीय छात्रों की सुरक्षित निकासी की व्यवस्था कराएं. लेकिन ऐसे औपचारिक राजनयिक कदमों का असर होना होता, तो अब तक कब का हो चुका होता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)