April 23, 2024

Muzaffarpur: Prime Minister Narendra Modi addresses during a BJP rally in Bihar's Muzaffarpur on April 30, 2019. (Photo: IANS)

विद्या कृष्णन

इन दिनों हिंदू धर्म से जुड़ा हर त्योहार इस तरह की कुछ घटनाएं लेकर आता है जो राष्ट्रीय स्तर की लड़ाई शुरू कर देती है. बीते दिनों पूरे भारत में हुआ हंगामा रामनवमी के उत्सव के बीच से पैदा हुआ, जिसमें कई धार्मिक और गर्वित हिंदू पुरुषों ने मुसलमानों को धमका कर और पीट कर अपनी धार्मिक आत्मा तृप्त की. महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में हिंसा के कारण दो लोगों की मौत होने और कई राज्यों में स्थिति तनावपूर्ण होने की खबरें भी आईं थी.

लगातार दूसरे वर्ष रमजान के समय पड़ा रामनवमी का त्योहार, हिंदू भीड़ के लिए भड़काऊ भाषण, नफरत और बेरोजगारी जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाकर मस्जिदों में तोड़फोड़ करने, जय श्री राम नहीं बोलने पर एक इमाम की दाढ़ी काटने और मुस्लिम नागरिकों पर आरोप लगाने का एक बहाना बन गया. यह मोदी सरकार का भारत है, अपने भद्दे और द्वेषपूर्ण रूप में, मिथकों के आधार पर चलन की एक भयानक तुच्छ प्रवृत्ति के साथ. मोदी प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों में से एक भी अधिकारी देवताओं के नाम पर किए गए घृणास्पद भाषण और अपराधों की निंदा करने के लिए सामने नहीं आया है. विडंबना यह है कि यह “मर्यादा पुरुषोत्तम” भगवान राम के नाम पर किया जाता है और उनका एक आदर्श राजा, पति, भाई, पुत्र वाला रूप कहीं खो गया लगता है.

जिस समय धर्मपरायण लोगों की भीड़ उत्साहपूर्वक त्योहार मनाने के लिए संगठित हो रही थी यह सरकार कुछ अन्य कार्यों में व्यस्त थी. मोदी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में समान-लिंग विवाहों को मान्यता देने का यह तर्क देते हुए विरोध किया कि विवाह की कानूनी मान्यता केवल विषमलैंगिक संबंधों के लिए थी. जिस सरकार ने नागरिकों की गिनती करने के लिए एक पूरी रजिस्ट्री की परिकल्पना की हो, उसी सरकार ने संसद को यह जानकारी भी दी थी कि उनके पास भारतीयों के विदेशी खातों का कोई डेटा नहीं है. कानून मंत्री किरेन रिजिजू सरकार की आलोचना करने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को “भारत विरोधी” कहते हैं, भले ही उनकी खुद की सरकार पेगासस स्पाइवेयर की खरीदारी कर रही हो.

गुजरात उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्रियों के बारे में जानकारी मांगने वाली केंद्र सरकार की एक एजेंसी द्वारा जारी 2016 के एक आदेश को भी दरकिनार कर दिया था. इस बीच विपक्ष के नेता राहुल गांधी अब संसद सदस्य नहीं रहे, क्योंकि हम एक बड़े चुनावी मौसम की ओर बढ़ रहे हैं. यह और भी बदतर तब हो जाता है जब बिहार के नालंदा में एक प्राचीन इस्लामिक मदरसा में रामनवमी के जुलूस के दौरान हिंदुओं की भीड़ द्वारा आग लगाए जाने पर लगभग चार हजार पांच सौ किताबें आग की लपटों में जल गई हों.

जबकि सामाजिक ताने-बाने को तोड़ा जा रहा था, विधेयकों को बिना चर्चा के संसद में पेश किया गया और पारित कर दिया गया. वित्त विधेयक और अनुदान की मांग और विनियोग विधेयक, दोनों धन विधेयक बिना चर्चा के पारित कर दिए गए थे, जिसका मतलब है कि उन्हें राज्य सभा की सहमति की आवश्यकता नहीं थी. विनियोग विधेयक के पारित होने से सरकार को आने वाले वर्ष में भारत की समेकित निधि से 2.7 लाख करोड़ रुपए की राशि निकालने की अनुमति मिल गई, जबकि वित्त विधेयक से कर प्रस्तावों को मंजूरी दे दी गई. अधिनायकवाद भयानक हो सकता है लेकिन इसके लिए बहुत सारी कागजी कार्रवाई की आवश्यकता होती है.

सटीक और बेशर्मी से फरमानों को क्रियान्वित करने के बाद, अधिकारी लापरवाही और अस्पष्ट रूप से जिम्मेदारी से बचते नजर आते हैं. प्रवासी मौतों पर कोई डेटा नहीं है; जामिया में गोलियां चलने पर पुलिस के पास प्रतिक्रिया करने का समय नहीं था; दिल्ली हिंसा के लिए कोई प्रासंगिक गवाह नहीं हैं; जानकारी सार्वजनिक किए जाने से पहले ही फाइलें गायब हो जाती हैं. अब हम भ्रष्टाचार और नफरत की अतिसंतृप्ति देख रहे हैं जो इतना नीरस है कि प्रतिरोध पैदा नहीं करता. यह बमुश्किल ही रुचि पैदा करती है.

अब जब भारत ऐतिहासिक महत्व रखने वाली किताबों को जलाने की हद तक पहुंच गया है, ऐसे में इतिहास और ज्ञान को ही नष्ट करने की कोशिशों के बारे में चर्चा करने की आवश्यकता है. यह केवल आरटीआई के जरिए पूछे गए सवलों से बचने और चिंताजनक स्थिति बताने वाले डेटा को एकत्र न करने के बारे में नहीं है. यह हमारे समयकाल की सामूहिक स्मृति के बारे में है. किसी भी समाज द्वारा किताबों के साथ किया गया व्यवहार उसके भाग्य का निर्धारक होता है क्योंकि साहित्य वह है जहां हम अपनी यादों, दुखों और विजय गाथाओं को संजोते हैं. इसके बिना हम एक सभ्यता नहीं कहलाएंगे.

यह कहना न तो विवादास्पद है और न ही अतिशयोक्ति कि मोदी अपने हित के लिए शासन करते हैं और इसके बारे में कोई हड़बड़ी नहीं करते. मोदी सरकार ने अपने हितों को ही देश का हित बना दिया है. वास्तव में यह एक कदम और आगे बढ़ गए हैं और संकट में घिरे अरबपति गौतम अडानी को राष्ट्र के साथ खड़ा करके मोदी के दोस्तों के हितों को भारत के हितों के रूप में वैध कर दिया है. संसद में अडानी समूह द्वारा किए स्टॉक हेरफेर पर चर्चा करने से इनकार कर दिया गया, लेकिन कैलिफोर्निया के सिलिकॉन वैली बैंक के पतन के बारे में बात करने में समय बिताया. बीजेपी अपने आप में एक मूल वोट बैंक बन गई है; जो एक जातीय समूह जैसा दिखता है और एक राजनीतिक दल की तरह व्यवहार करता है. झूठे, मुनाफाखोर, अरबपति, बैंक डिफाल्टर, शातिर और अज्ञानी सभी की इस नेतृत्व में हिस्सेदारी है. पार्टी सदियों पुरानी राजनीतिक गलतियों को दोहरा रही है, उनके पास शक्ति है इसलिए वह सोचते है कि उन्हें अब उचित प्रक्रिया या जवाबदेही की आवश्यकता नहीं है.

इन सब से ध्यान हटाने के लिए, मोदी अपने फॉलोअर्स को इतिहास को खंगालने, महाकाव्यों, पौराणिक कथाओं और संशोधनवादी इतिहास को जानने के लिए कहते हैं कि कैसे भारत एक महान राष्ट्र बन गया. यह बात अलग है कि इस पूरे इतिहास में उनका, उनके वैचारिक स्वामी और साथ ही उनके वर्तमान साथियों का नाम मात्र का भी योगदान नहीं है. शेखी बघारने के लिए, सरकार ने राजधानी में भव्य संरचनाएं खड़ी की हैं और करदाताओं के करोड़ों रुपए प्रतिष्ठा परियोजनाओं पर खर्च किए हैं, जिनमें से कोई भी अस्पताल या स्कूल या पुस्तकालय नहीं हैं.

जब हमारे प्रधान मंत्री जनता से बात करते हैं, तो वे अपने अतीत को सामने लाते हैं, जिसे लेकर वह कहते हैं कि उनका दैनिक जीवन वीरतापूर्ण कार्यों से भरा हुआ था. वह बताते हैं कि वह एक चायवाला थे मानो यह उस कुर्सी की शक्ति को कम कर देता है जिस पर वह काबिज हैं. जिन मतदाताओं ने उन्हें राष्ट्र-निर्माण के लिए चुना था, अब उन्हें मोदी के मिशन के लिए बलिदान देने, भोजन और नकदी जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए लंबी कतारों में लगने का काम मिल रहा है. इस बीच हमारे प्रधानमंत्री यह नहीं समझाते हैं कि अगर सभी काम हमारे द्वारा किए जाने हैं, तो उन्हें प्रभारी होने की आवश्यकता क्यों है. मैं अब इस सरकार से सिवाए पागलपन, नीचता और झूठ के और कुछ उम्मीद नहीं रखती. मुझे इस बात से खुशी होती है कि मोदी के वर्षों को सावधानीपूर्वक दस्तावेजित किया जा रहा है.

कुछ दिनों पहले हुआ रामनवमी का उत्सव हिंसा पर उतारू कायरों और दबंगों के एक खुले जमावड़े में बदल गया, जो बस लड़ाई चाहते हैं और झुंड में हमला करना पसंद करते हैं. हिंदू त्योहारों के दौरान हिंसा की धमकी देते हुए युवकों का मार्च करना मोदी पर एक कलंक की तरह है, जिन्होंने असुरक्षा, भय और घृणा को प्रेरित किया है और उन भावनाओं को अपनी ताकत के दम पर पोषित किया है. इन युवा, बेरोजगार पुरुषों, उनके समुदायों और परिवारों को हुई दुखद क्षति की गिनती नहीं की जा सकती है.

जैसा कि जर्मन कवि हेनरिक हाइन ने कहा है, “जहां वे किताबें जलाते हैं, वहीं वे लोगों को भी जलाते हैं.” त्योहारों का मौसम हो या चुनाव का मौसम,  हर महीने नफरत का एक ऐसा माहौल तैयार होता है जो हमें राष्ट्र की स्थापना करने वाले लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर ले जाता है. यह राष्ट्र के स्तर की लड़ाई अब हमारे लिए सामान्य हो गई है, जिसमें भारतीय अपने हमवतनों की लिंचिंग करते हैं, विश्वविद्यालयों को नष्ट करते हैं, मस्जिदों को ध्वस्त करते हैं और पुस्तकालयों में आग लगाते हैं. इस गंभीर सच्चाई में, “पवित्र और गर्वित हिंदू” जैसे वाक्यांश युद्ध के नारों में बदल गए हैं. 2014 से पहले उनका कुछ अलग मतलब रहा होगा लेकिन मोदी ने इनके मायने बदल दिए हैं.

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