चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमना ने शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में विधायिका और कार्यपालिका को खरी-खरी सुनाई और देश में न्यायपालिका के समक्ष चुनौतियों और न्यायिक सक्रियता का सम्पूर्ण खाका खींच कर रख दिया। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में चीफ जस्टिस द्वारा उठाये गये किसी मुद्दे का जवाब या स्पष्टीकरण नहीं दिया। चीफ जस्टिस ने कहा कि हमें ‘लक्ष्मण रेखा’ का ध्यान रखना चाहिए, अगर यह कानून के अनुसार हो तो न्यायपालिका कभी भी शासन के रास्ते में नहीं आएगी। चीफ जस्टिस रमना ने कहा कि यदि नगरपालिकाएं, ग्राम पंचायतें अपने कर्तव्यों का पालन करती हैं, यदि पुलिस ठीक से जांच करती है और गैरकानूनी कस्टोडियल यातना खत्म होती है, तो लोगों को अदालतों की ओर देखने की जरूरत नहीं होगी।
चीफ जस्टिस रमना नई दिल्ली में राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के 11वें संयुक्त सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में बैड गवेर्नेंस का नाम लिए बिना कहा कि कार्यपालिका के विभिन्न अंगों का काम ना करना और कानूनों में अस्पष्टता न्यायपालिका पर मुकदमों का बोझ बहुत बढ़ा रही है। सीजेआई ने कहा कि यदि अधिकारी कानून के अनुसार अपना कार्य करें तो लोग अदालतों का दरवाजा नहीं खटखटाएंगे। गवर्नेंस में कई बार कानून और संविधान की अनदेखी की जाती है और कार्यकारी निर्णयों को लागू करने की हड़बड़ी में लीगल डिपार्टमेंट की राय नहीं मांगी जाती है।
चीफ जस्टिस ने कानून के शासन की अवधारणा का नाम लिए बिना याद दिलाया कि कानून के मुताबिक काम करने पर न्यायपालिका गवर्नेंस के रास्ते में नहीं आएगी। फिर उन्होंने मिसगर्वनेंस के कुछ उदाहरण दिए, जिससे मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिलता है।
चीफ जस्टिस ने कहा कि सरकार, 56 प्रतिशत मामलों के लिए अदालतों में सबसे बड़ी वादी है। चीफ जस्टिस ने व्यक्तियों को गिरफ्तार करने और मामलों की जांच करने में प्रक्रियात्मक निष्पक्षता की कमी पर भी आईना दिखाया। सुशासन की कुंजी कानून और संविधान का पालन करना है, और यदि पुलिस जांच उचित तरीके से की जाती है, और अवैध गिरफ्तारी और हिरासत में यातना समाप्त हो जाती है, तो मामलों की संख्या में भारी कमी आएगी।
चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं भारतीय परिदृश्य में डॉकेट एक्सप्लोज़न में योगदान देने वाले कुछ कारकों की पहचान के साथ शुरुआत करना चाहूंगा। यदि कोई तहसीलदार भूमि सर्वेक्षण, या राशन कार्ड के संबंध में किसी किसान की शिकायत पर कार्रवाई करता है तो किसान अदालत का दरवाजा खटखटाने के बारे में नहीं सोचेगा। यदि कोई नगरपालिका प्राधिकरण या ग्राम पंचायत अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन करती है तो नागरिकों को अदालतों की ओर देखने की जरूरत नहीं होगी।
चीफ जस्टिस ने कहा कि यदि राजस्व अधिकारी कानून की उचित प्रक्रिया के माध्यम से भूमि का अधिग्रहण करते हैं तो अदालतें भूमि विवादों के बोझ से दबी नहीं होंगी। जाहिर है, ये मामले लम्बित मामलों का 66 प्रतिशत हैं। यह मेरी समझ से परे है कि सरकार के आंतरिक और अंतर विभागीय विवाद या सार्वजनिक उपक्रमों और सरकार के बीच झगड़े अदालतों तक क्यों पहुंच जाते हैं। यदि वरिष्ठता, पेंशन आदि के मामलों में सेवा कानूनों को निष्पक्ष रूप से लागू किया जाता है तो कोई भी कर्मचारी अदालतों में जाने के लिए मजबूर नहीं होगा। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि लगभग 50% मामलों में सरकारें सबसे बड़ी वादी हैं।
पुलिसिया ज्यादती और कानून के खुलेआम उल्लंघन का नाम लिए बिना चीफ जस्टिस ने कहा कि यदि पुलिस की जांच निष्पक्ष होती है, यदि अवैध गिरफ्तारी और हिरासत में यातना समाप्त हो जाती है तो किसी भी पीड़ित को अदालतों का दरवाजा नहीं खटखटाना पड़ेगा। कानून और संविधान का पालन करना, सुशासन की कुंजी है। हालांकि, इसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है और कार्यकारी निर्णयों को लागू करने की हड़बड़ी में लीगल डिपार्टमेंट की राय नहीं मांगी जाती है”। सीजेआई ने कहा कि सरकारों के लिए विशेष अभियोजकों और स्टैंडिंग काउंसिल्स की कमी एक और प्रमुख मुद्दा है, जिसे संबोधित करने की आवश्यकता है।
अवमानना के मामलों में सरकार की अवहेलना पर चीफ जस्टिस ने सरकार द्वारा न्यायिक निर्देशों का पालन नहीं करने पर भी चिंता व्यक्त की, जिसके कारण अवमानना याचिकाओं में उछाल आया। अदालतों के फैसले सरकारें कई वर्षों तक लागू नहीं करती हैं, जिसका नतीजा यह रहता है कि अवमानना याचिकाओं के रूप में न्यायालयों पर बोझ की एक नई श्रेणी तैयार हो रही है। जो सरकारों द्वारा अवज्ञा का प्रत्यक्ष परिणाम है। न्यायिक घोषणाओं के बावजूद सरकारों की जानबूझकर निष्क्रियता लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है।
संसद में बिना बहस कानून पारित करने पर चीफ जस्टिस ने कहा कि इस समय पर्याप्त चर्चा के बिना कानून पारित किए जा रहे, कानून में अस्पष्टता मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे रही है। इसके बाद चीफ जस्टिस ने पर्याप्त बहस और चर्चा के बिना विधायिका द्वारा कानून पारित करने की समस्या का उल्लेख किया। कभी-कभी, कानूनों में अस्पष्टता मौजूदा कानूनी मुद्दों को भी जोड़ती है। यदि विधायिका विचार की स्पष्टता, दूरदर्शिता और लोगों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए कानून पारित करती है तो मुकदमेबाजी की गुंजाइश कम से कम हो जाती है। विधायिका से यह अपेक्षा की जाती है कि वह कानून बनाने से पहले जनता के विचारों को स्वीकार करे और विधेयकों पर क्लॉज दर क्लॉज, एक-एक बिंदु पर बहस करे।
चीफ जस्टिस ने कहा कि इन उदाहरणों के आधार पर कोई भी सुरक्षित रूप से संक्षेप में कह सकता है कि अक्सर दो प्रमुख कारणों से मुकदमेबाजी शुरू होती है। एक, कार्यपालिका के विभिन्न अंगों द्वारा काम न करना। दूसरा, विधायिका अपनी पूरी क्षमता का एहसास नहीं कर रही है।
चीफ जस्टिस ने कहा कि लंबित मामलों के लिए न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहराया जाता है लेकिन रिक्त पदों को भरने और जजों की स्वीकृत संख्या बढ़ाने के मुद्दे पर चर्चा की जरूरत है। चीफ जस्टिस ने कहा कि स्वीकृत संख्या के अनुसार, हमारे पास प्रति 10 लाख की आबादी पर लगभग 20 जज हैं, जो चिंताजनक है। 2016 में देश में न्यायिक अधिकारियों की स्वीकृत संख्या 20,811 थी। अब यह 24,112 है, 6 वर्षों में 16% की वृद्धि हुई है। वहीं इसी अवधि में जिला न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या 2 करोड़ 65 लाख से बढ़कर 4 करोड़ 11 लाख हो गई है, जो कि 54.64 प्रतिशत की वृद्धि है। यह डेटा दर्शाता है कि स्वीकृत संख्या में वृद्धि कितनी अपर्याप्त है।
चीफ जस्टिस ने कहा कि मैं माननीय मुख्यमंत्रियों से मुख्य न्यायाधीशों को जिला न्यायपालिका को मजबूत करने के उनके प्रयास में पूरे दिल से सहयोग करने का आग्रह करना चाहता हूं। जब तक नींव मजबूत नहीं होगी संरचना को कायम नहीं रखा जा सकता है। कृपया उदार रहें अधिक पद सृजित करें और उन्हें भरें, ताकि हमारे न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात की तुलना उन्नत लोकतंत्रों से की जा सके।
चीफ जस्टिस ने कहा कि फर्जी मुकदमों की बढ़ती संख्या चिंता का विषय है। उदाहरण के लिए, जनहित याचिका की अच्छी अवधारणा कभी-कभी व्यक्तिगत हितों की मुकदमेबाजी में बदल जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जनहित याचिका ने जनहित की सेवा की है। हालांकि, कभी-कभी परियोजनाओं को रोकने या सार्वजनिक प्राधिकरणों पर दबाव बनाने के लिए इसका दुरुपयोग किया जाता है। इन दिनों, जनहित याचिका उन लोगों के लिए एक उपकरण बन गई है जो पॉलिटिकल स्कोर या कॉर्पोरेट प्रतिद्वंद्विता को निपटाना चाहते हैं। दुरुपयोग की संभावना को समझते हुए, अदालतें अब इन पर सुनवाई करने में अत्यधिक सतर्क हो गई हैं।
चीफ जस्टिस ने कहा कि न्यायिक अवसंरचना, मौजूदा बुनियादी ढांचे और लोगों की अनुमानित न्याय आवश्यकताओं के बीच एक गंभीर अंतर है। कुछ जिला न्यायालयों का माहौल ऐसा है, महिला अधिवक्ताओं को तो अदालत कक्षों में प्रवेश करने में भी डर लगता है, महिला मुवक्किलों की तो बात ही छोड़िए। न्यायालयों को न्याय का मंदिर होने के नाते अपेक्षित गरिमा और आभा लेकर चलना चाहिए। उन्होंने न्यायिक बुनियादी ढांचे से निपटने के लिए राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण की तर्ज पर एक राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना निगम आवश्यकता को दोहराया।
चीफ जस्टिस ने कहा कि मुझे हाईकोर्ट के समक्ष कार्यवाही में स्थानीय भाषाओं को पेश करने के लिए कई प्रेजेंटेशन प्राप्त हो रहे हैं। मुझे लगता है कि अब समय आ गया है, मांग पर फिर से विचार करें और इसे तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचे। संवैधानिक न्यायालयों के समक्ष कानून का अभ्यास किसी की बुद्धि पर आधारित होना चाहिए और कानून की समझ, न कि केवल भाषा की प्रवीणता पर।
चीफ जस्टिस ने ये भी कहा कि दुनिया में कोई अन्य संवैधानिक अदालत इतने बड़े मुद्दों की सुनवाई नहीं करती है। अगर राजस्व कानून की उचित प्रक्रिया के साथ भूमि अधिग्रहण को अधिकृत करता है, तो अदालत भूमि विवादों का बोझ नहीं उठाएगी और इन मामलों में 66% लम्बित हैं।
चीफ जस्टिस ने न्यायपालिका के भारतीयकरण के लिए अपने आह्वान को भी दोहराया। मैं “न्याय वितरण प्रणाली के भारतीयकरण का एक मजबूत समर्थक रहा हूं। भारतीयकरण से मेरा मतलब है कि भारतीय आबादी की जरूरतों और संवेदनाओं के अनुरूप प्रणाली को ढालकर पहुंच बढ़ाना। यह एक बहुआयामी अवधारणा है। यह समावेशिता, न्याय तक पहुंच प्रदान करने, भाषा की बाधाओं को दूर करने, व्यवहार और प्रक्रिया में सुधार, बुनियादी ढांचे के विकास, रिक्तियों को भरने, न्यायपालिका की ताकत बढ़ाने आदि की मांग करता है।
(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)