May 19, 2024

अरुंधति रॉय

पिछले महीने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा को दुनिया के दो सबसे महान लोकतंत्रों की एक मुलाक़ात के रूप में प्रचारित किया गया और दोनों देशों ने बख़ूबी ऐलान किया कि वे ‘दुनिया के सबसे करीबी साझीदार’ हैं. लेकिन वे किस क़िस्म के साझीदार होंगे? वे किस क़िस्म के साझीदार हो सकते हैं?

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन दावा करते हैं कि उनकी हुकूमत का केंद्रीय उसूल ‘लोकतंत्र की रक्षा’ है. यह बात सराहने लायक़ है, लेकिन वॉशिंगटन में जो कुछ हुआ वह ठीक इसका उल्टा था. अमेरिकी हुक्मरान जिस शख़्स के आगे बिछे हुए थे, उसने भारतीय लोकतंत्र को बहुत व्यवस्थित तरीक़े से कमज़ोर किया है.

हमें दोस्तों के मामले में अमेरिका की पसंद को लेकर हैरान होने की ज़रूरत नहीं है. अमेरिकी सरकारों ने जिन अजूबों को अपने साझीदारों के रूप में पाला-पोसा है, उनमें ईरान के शाह, पाकिस्तान के जनरल मोहम्मद ज़िया-उल-हक़, अफ़ग़ानी मुजाहिदीन, इराक़ के सद्दाम हुसैन, दक्षिणी वियतनाम में एक के बाद एक छुटभैये तानाशाह और चिली के जनरल ऑगुस्तो पिनोशे शामिल हैं.

अमेरिकी विदेश नीति का केंद्रीय उसूल अक्सर यह होता है: लोकतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए, अपने (अश्वेत) दोस्तों के लिए तानाशाही.

बेशक मिस्टर (नरेंद्र) मोदी इन बदमाशों की महफ़िल का हिस्सा नहीं हैं. भारत उनसे बड़ा है. यह उन्हें विदा करेगा. सवाल यह है कि कब? और किस क़ीमत पर?

भारत में तानाशाही नहीं है, लेकिन वह अब एक लोकतंत्र भी नहीं है. मोदी की हुकूमत एक बहुसंख्यकपरस्त, हिंदू श्रेष्ठता के नशे में डूबी हुई, चुनावी निरंकुशता वाली हुकूमत है, जिसकी गिरफ़्त दुनिया के सबसे विविधता भरे मुल्कों में से एक पर मज़बूत होती जा रही है.

इसकी वजह से चुनावों का मौसम, जो क़रीब आ पहुंचा है, हमारा सबसे ख़तरनाक वक़्त हुआ करता है. यह हत्याओं का मौसम है, यह पीट-पीट कर मार देने का मौसम है, यह छुपी हुई धमकियों का मौसम है.

अमेरिकी सरकार जिस साझीदार को पाल-पोस कर मजबूत कर रही है, वह दुनिया के सबसे ख़तरनाक लोगों में से एक है – एक शख़्स के रूप में ख़तरनाक नहीं, बल्कि एक ऐसे इंसान के रूप में ख़तरनाक जिसने दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी वाले इस मुल्क को एक विस्फोटक जगह में तब्दील कर दिया है.

वह प्रधानमंत्री किस क़िस्म के लोकतंत्र पर यक़ीन रखता है, जो करीब-करीब कभी भी प्रेस सम्मेलन आयोजित नहीं करता है? मोदी जब वॉशिंगटन में थे तो एक प्रेस सम्मेलन से मुख़ातिब होने के लिए मनाने में अमेरिकी सरकार की सारी ताक़त लग गई (इतने काबिल हैं वे).

मोदी ने सिर्फ़ दो सवालों के जवाब देना क़बूल किया, उनमें भी सिर्फ़ एक सवाल एक अमेरिकी पत्रकार से. द वाल स्ट्रीट जर्नल की ह्वाइट हाउस संवाददाता सबरीना सिद्दिक़ी उनसे यह पूछने के लिए खड़ी हुईं कि उनकी सरकार अल्पसंख्यकों, ख़ास कर मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव को रोकने के लिए क्या कर रही है. उनके मुल्क में मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ जिस तरह की बदसलूकी बढ़ती जा रही है,

यह सवाल तो असल में ह्वाइट हाउस द्वारा पूछा जाना चाहिए था. लेकिन बाइडन प्रशासन ने आउटसोर्स करते हुए इसका ज़िम्मा एक पत्रकार को सौंप दिया. भारत में हम लोग सांसें रोके हुए इंतज़ार में थे.

मोदी ने हैरानी जताई कि ऐसा सवाल पूछा भी कैसे जाना चाहिए. इसके बाद उन्होंने शांत करने के लिए वह हथकंडा अपनाया, जिसे वे तैयार करके लाए थे. ‘लोकतंत्र हमारी आत्मा है. लोकतंत्र हमारी रगों में दौड़ता है. हम लोकतंत्र को जीते हैं.’ उन्होंने कहा, ‘कोई भी भेदभाव नहीं हो रहा है.’ वग़ैरह-वग़ैरह.

भारत में मुख्यधारा की मीडिया और मोदी के प्रशंसकों की विशाल फ़ौज ने इस तरह ख़ुशी मनाई मानो उन्होंने बहुत बेहतरीन तरीक़े से इसका सामना किया हो. जो लोग उनका विरोध करते हैं, वे अपने यक़ीन को बनाए रखने के लिए इस मलबे में से टुकड़े चुनते हुए रह गए. (‘आपने बाइडन की बॉडी लैंग्वेज पर ग़ौर किया? बिल्कुल ही मुख़ालिफ़ थी.’ ऐसी ही बातें.) मैं इस इस दोमुंहेपन का शुक्रगुज़ार थी. फ़र्ज़ कीजिए अगर मोदी को सच्चाई बता देने लायक़ हौसला मिला होता. दोमुंहापन हमें एक क़िस्म की फटेहाल पनाह मुहैया कराता है. फ़िलहाल, हमारे पास बस यही है.

ट्विटर पर सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और दूसरे हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा सिद्दिक़ी पर बेरहमी से हमले किए गए और उन पर एक भारत-विरोधी एजेंडा रखने, पक्षपात से भरी पाकिस्तानी इस्लामी नफ़रत को फैलाने वाली एक शख़्स होने का आरोप लगाया गया. और ये तो सबसे विनम्र टिप्पणियां थीं.

आख़िरकार ह्वाइट हाउस को दख़ल देनी पड़ी और उसने सिद्दिकी को इस तरह सताने की निंदा करते हुए उसे ‘लोकतंत्र के उसूलों के ही ख़िलाफ़’ करार दिया. ऐसा महसूस हुआ कि ह्वाइट हाउस ने जिस चीज़ की अनदेखी करनी चाही थी, वह चीज़ शर्मनाक रूप से ज़ाहिर हो गई थी.

मुमकिन है कि सिद्दिक़ी को यह अंदाज़ा न हो कि उन्होंने किस चीज़ में हाथ डाल दिया था. लेकिन अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट और ह्वाइट हाउस के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती है. उस शख़्स के बारे में उन्हें बख़ूबी पता रहा होगा, जिसके लिए वे लाल कालीन बिछा रहे थे.

उन्हें गुजरात में 2002 में मुसलमान विरोधी क़त्लेआम में भूमिका निभाने के मोदी पर लगे आरोपों की जानकारी रही होगी, जिसमें 1,000 से अधिक मुसलमानों का क़त्ल किया गया था. उन्हें इस बात की जानकारी भी रही होगी कि मुसलमानों को किस तरह लगातार पीट-पीट कर सरेआम मारा जा रहा है, उन्हें मोदी के मंत्रिमंडल के उस सदस्य के बारे में भी जानकारी रही होगी जो पीट-पीट कर मारने वालों से फूल-मालाएं लेकर मिले, उन्हें हर क़िस्म से मुसलमानों को अलग-थलग और अकेला कर देने की तेज़ी से चल रही प्रक्रिया की जानकारी भी रही होगी.

उन्हें विपक्षी नेताओं, छात्रों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, और पत्रकारों को उत्पीड़ित किए जाने की ख़बर भी रही होगी, जिनमें से कुछ को जेल की लंबी सज़ाएं तक मिल चुकी हैं; पुलिस और हिंदू राष्ट्रवादी होने के अंदेशे वाले लोगों द्वारा विश्वविद्यालयों पर हमलों की; इतिहास की किताबों को फिर से लिखे जाने की; फ़िल्मों पर पाबंदियां लगाए जाने की; एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के बंद होने की; बीबीसी के भारतीय दफ़्तरों पर छापों की; कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और सरकार के आलोचकों को विदेश यात्राओं से रोकने के लिए रहस्यमय नो-फ्लाई लिस्ट में डाले जाने की और भारतीय और विदेशी अकादमिक लेखकों-चिंतकों पर दबावों की जानकारी भी रही होगी.

उन्हें पता होगा कि भारत अब वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इन्डेक्स (विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक) में 180 देशों में 161वें रैंक पर है, कि भारत के कई सारे बेहतरीन पत्रकारों को मुख्यधारा के मीडिया से निकाल बाहर कर दिया गया है और पत्रकारों को शायद जल्दी ही सेंसर की एक ऐसी व्यवस्था का सामना करना पडे़गा, जिसमें सरकार द्वारा क़ायम की गई एक संस्था के पास यह फ़ैसला करने की ताक़त होगी कि सरकार के बारे में मीडिया की ख़बरें और टिप्पणियां फ़र्ज़ी और गुमराह कहने वाली हैं या नहीं.

वे कश्मीर के हालात के बारे में जानते रहे होंगे, 2019 में जिसका संपर्क महीनों तक दुनिया से काट कर रखा गया – एक लोकतंत्र में इंटरनेट को बंद करने की यह सबसे लंबी घटना थी. उस कश्मीर के पत्रकारों को उत्पीड़ित और गिरफ्तार किया जाता है, उनसे पूछताछ होती है. 21वीं सदी में किसी की ज़िंदगी भी वैसी नहीं होनी चाहिए, जैसी उनकी है – अपनी गर्दनों पर बूटों के साए में.

वे 2019 में पास किए गए नागरिकता संशोधन अधिनियम के बारे में जानते रहे होंगे, जो बड़े खुलेआम तरीक़े से मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है; उन्हें उन बड़े आंदोलनों की जानकारी भी होगी, जो इसके नतीजे में उठ खड़े हुए थे; और यह भी कि वे आंदोलन तभी ख़त्म हुए जब उसके अगले साल दिल्ली में हिंदू भीड़ ने दर्जनों मुसलमानों का क़त्ल किया (जो इत्तेफाक से उस समय हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप एक आधिकारिक यात्रा पर शहर में थे और जिसके बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा).

मुमकिन है कि उन्हें इस बात की जानकारी भी हो कि जिस वक़्त वे मोदी के गले मिल रहे थे, उसी वक़्त उत्तर भारत में एक छोटे-से क़स्बे से मुसलमान अपना घर-बार छोड़ कर भाग रहे थे, जब ख़बरों के मुताबिक़ सत्ताधारी दल से जुड़े हिंदू चरमपंथियों ने मुसलमानों के दरवाज़ों पर क्रॉस के निशान लगाए और उन्हें चले जाने को कहा था.

वक़्त आ गया है कि हम इस बेवक़ूफ़ी भरे मुहावरे से छुटकारा पा लें कि हमें सत्ता को सच्चाई बताने की ज़रूरत है. सत्ता को हमसे कहीं अधिक अच्छे से सच्चाई पता होती है.

बाक़ी बातों के अलावा, बाइडन प्रशासन को यह भी पता रहा होगा कि भव्य स्वागत का हरेक पल और खोखली चापलूसी का एक-एक कदम मोदी के लिए 2024 के चुनाव प्रचार में मुंहमांगी मुराद का काम करेगा, जब वे एक तीसरा कार्यकाल पाने के लिए उतर रहे हैं.

विडंबना देखिए कि मोदी ने 2019 में टेक्सस के एक स्टेडियम में प्रवासी भारतीयों की एक रैली में ट्रंप की मौजूदगी में उनके लिए खुलेआम प्रचार किया था. मोदी ने नारा लगाते हुए भीड़ को उत्साहित किया था, ‘अबकी बार ट्रंप सरकार!’

इसके बावजूद बाइडन ने आधुनिक भारतीय राजनीति के इतिहास की इस सबसे विभाजनकारी शख़्सियत के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी. क्यों?

इस आधिकारिक दौरे के दौरान सीएनएन पर प्रसारित क्रिस्टियान अमनपोर के साथ एक इंटरव्यू में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हमें बताया कि क्यों (और दिल यह यक़ीन करना चाहता है कि यह इंटरव्यू भी ह्वाइट हाउस की आउटसोर्सिंग का हिस्सा था). ओबामा से पूछा गया कि एक अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी जैसे नेताओं के साथ कैसे पेश आना चाहिए, जिन्हें व्यापक रूप से निरंकुश और अनुदार माना जाता है.

‘यह जटिल है,’ उन्होंने कहा और उन वित्तीय, भू-राजनीतिक और सुरक्षा सरोकारों का ज़िक्र किया जिन पर एक अमेरिकी राष्ट्रपति को विचार करना चाहिए. भारत में इसे सुनने वाले हम लोगों तक जो बात पहुंची वह साफ़ तौर पर यह थी, ‘असली मुद्दा चीन है.’

ओबामा ने यह भी कहा कि अगर अल्पसंख्यक महफ़ूज़ नहीं रहे तो मुमकिन है कि भारत ‘एक मुक़ाम पर बिखरने लग जाएगा’. भारत में ट्रोल उनके पीछे लग गए, लेकिन ये बातें भारत में कइयों के लिए मरहम की तरह थीं, जो हिंदू राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ खड़े होने की कठोर क़ीमत चुका रहे हैं और इस बात से बहुत हैरान थे कि किस कदर बाइडन मोदी के हाथ मज़बूत करने में जुटे हुए हैं.

लेकिन अगर अमेरिकी राष्ट्रपति को दूसरे देशों के साथ रिश्तों में अपने राष्ट्रीय हित पर सोचने की इजाज़त है, तब इसकी गुंजाइश दूसरे मुल्कों को भी ज़रूर होनी चाहिए. तो भारत अमेरिका के लिए किस तरह का साझीदार हो सकता है?

पूर्वी एशिया में वॉशिंगटन के शीर्ष कूटनीतिज्ञ ने यह कहा है कि अमेरिकी फ़ौज उम्मीद करती है कि भारत साउथ चाइना सी (दक्षिण चीन सागर) में गश्त करने में उनकी मदद करेगा, जहां इलाक़े पर चीन के दावों के कारण माहौल गहरा गया है. अब तक भारत उनका साथ देता रहा है, लेकिन क्या यह इस खेल में सचमुच शामिल होने का जोखिम उठाएगा?

रूस और चीन के साथ भारत के रिश्ते गहरे, व्यापक और पुराने हैं. भारतीय फ़ौज का अंदाज़न 90 फ़ीसदी साज-सामान और इसकी वायुसेना का क़रीब 70 फ़ीसदी सामान रूसी मूल के हैं, जिसमें लड़ाकू जहाज़ भी शामिल हैं.

रूस पर अमेरिकी पाबंदियों के बावजूद भारत रूसी कच्चे तेल का आयात करने वाले सबसे बड़े देशों में से एक है – जून में इसने रूस से रोज़ाना 22 लाख बैरल कच्चा तेल ख़रीदा. इसमें से कुछ हिस्से को रिफाइन करके यह विदेशों में बेचता है, जिसके ख़रीददारों में यूरोप और अमेरिका भी शामिल हैं. हैरानी की बात नहीं है कि यूक्रेन पर रूसी हमले में मोदी ने भारत को तटस्थ  बनाए रखा है.

न ही मोदी सचमुच में चीन के ख़िलाफ़ खड़े हो सकते हैं, जो भारत में आयात का सबसे बड़ा स्रोत है. भारत चीन को टक्कर नहीं दे सकता – न तो आर्थिक रूप से, और न ही फ़ौजी मामलों में.

बरसों से चीन ने हिमालय में लद्दाख में हज़ारों वर्ग मील ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर रखा है, जिसे भारत अपना संप्रभु इलाक़ा मानता है. वहां चीनी सैनिक टुकड़ियों के शिविर हैं. वहां पुल, सड़कें और दूसरे आधारभूत ढांचे बनाए जा रहे हैं, ताकि चीन से उसे जोड़ा जा सके. और मोदी ने टिकटॉक पर पाबंदी लगाने के अलावा अब तक सिर्फ़ डरते हुए और हक़ीक़त को नकारते हुए ही इसका सामना किया है.

और चीन के साथ टकराव के हालात में संयुक्त राज्य अमेरिका भारत के लिए किस क़िस्म का दोस्त साबित होगा? ऐसे में जंग का जो संभावित मैदान होगा, अमेरिका उससे कहीं दूर स्थित है.

अगर हालात ख़राब हुए तो अमेरिका को सिर्फ़ बेवकूफ दिखने और अपने आख़िरी हेलीकॉप्टरों पर अपने सहयोगियों को लटकाए हुए निकल भागने के अलावा शायद ही कोई और क़ीमत चुकानी पड़े.

अमेरिका के पुराने दोस्तों का क्या हश्र हुआ है, यह जानने के लिए हमें बस अपने पड़ोस में नज़र उठाकर अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान को देख लेने की ज़रूरत है.

साउथ चाइना सी में एक क़यामत सिर उठा रही है. लेकिन भारत और उसके दोस्त और दुश्मन एक ही गुत्थी में बंधे हुए हैं. हमें इस बात को लेकर बेहद ज़्यादा, ख़ास तौर पर, गैरमामूली तौर पर, सावधान रहने की ज़रूरत है कि हम अपने क़दम कहां रख रहे हैं, और किस दिशा में जा रहे हैं. हरेक को करना चाहिए.

(अरुंधति रॉय का यह लेख मूल रूप से द न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित हुआ है. इसका हिंदी अनुवाद रियाजुल हक ने किया है.)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *